Thursday, December 24, 2009

बूझ गया चिराग.. डूब गया घर का सूरज ...

कक्षा पांचवी का छात्र चिराग पटेल स्कूल प्रशासन की लापरवाही की बलि चढ़ गया। स्कूलों में चलन हो गया है एडुकेशनल टूर और पिकनिक मनाने का। चिराग के स्कूल वालों ने भी पूरे स्कूल का पिकनिक मनाने पुणे के वॉटरपार्क में ले गये थे। सुबह सात बजे नवी मुंबई से गये पिकनिक मनाने वाले सारे बच्चे रात को दस- ग्यारह तक मुंबई लौट आए लेकिन उन बच्चों में चिराग नही था। लौटते वक्त बच्चों का गिनती की गयी जिसमें चिराग नही था। बच्चों से यह कहा गया की चिराग बाद में आ जाएगा और चिराग को छोडकर सभी बच्चों को वापस लाया गया। बच्चों के साथ गये टीचर्स ने उसके माता –पिता को इत्तला देने की जहमत भी नही उठायी। पांच छ घटों तक चिराग के परिजनों से यह बात छुपाई गयी। सुबह पता चला की स्विमींगपुल में तैरने के लिए चिराग पानी में तो उतरा लेकिन बाहर आया। बाहर निकला तो चिराग का मृत शरीर जिसमें कभी बचपन हँसता था अब वो बेजान हो चुका था। हालांकि सभी को यह पता था कि चिराग तैरना नही जानता। इस बात की जानकारी होने बावजूद भी टीचर्स ने उसे रोका नही। इसका दोष तो सीधे उन लोगों पर जाता है जो बच्चों को तो पिकनिक मामने को ले जाते हैं, लेकिन उनके नाम पर और उन्हीं के माता पिता के जरिये चुकाए पैसे से अपने मौज मस्ती में मशगूल हो जाते हैं, तो वैसे लोगों को चिराग का घ्यान ही कहाँ रहेगा। उनकी शर्म तब भी नहीं आयी जब लापाता होने का बात जान कर छुपाई और ना ही चिराग के माता पिता से इस बात की चर्चा ही की। ना ही मासूम चिराग को ढूँढने की कोशिश की गयी। पिछले कुछ दिनों से प्राइवेट स्कूलों की लापरवाही के कई मामले सामने आये है। बसों में बच्चों को तो ठूँसने का मामला हमेशा ही देखने को मिलता है । हाल ही में नवी मुंबई में स्कूल बस में आग लगने से छह बच्चे झुलस गये थे। उसी नवी मुंबई में ही दो स्कूली बस आपस में टकराई थी। शुक्र है इस हादसे में बच्चों को कोई नुकसान नही पहूंचा। कल की ही बात है उल्हासनगर में नौवीं क्लास में पढनेवाले छात्र को स्कूल में पहूंचने में थोडीसी देरी हो गयी, जिसे सहमा बच्चा मारे डर के पिछले गेट से स्कूल के अंदर जाने की कोशिश की और इसी कोशिश में लोहे का सरीया उसके हाथ में घुस गया। दो घटें तक बच्चा लहु-लुहान होकर गेट से लटका रहा। लेकिन स्कूल से कोई मदद के लिए उस बेबस के पास नहीं पहुँचा असहाय और सहमा मासूम झूलता रहा और सनता रहा अपने ही खून में। आखिरकार आसपास के लोगों ने गैस कटर के सहारे सरीया काटकर बच्चे को अलग किया। बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले, अच्छे संस्कार मिले इसी उम्मीद पर अपना पेट काटकर कई मां बाप बच्चों के स्कूलों का खर्चा उठाते है। बडे बडे स्कूलों में डोनेशन के नाम पर ऐठने वाली मोटी रकम चुका कर दाखिला करवाते है। लेकिन स्कूल है कि केवल रकम इकट्टी करने की मशीन बन गए हैं। टीचर हैं कि संस्कार देना और हिफाज़त करना तो दूर अपने ही विद्या मंदिर और गरिमा को कलंकित कर रहे हैं। बहुत पहले ही कहा गया है कि गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देव महेश्वर:, गुरूर साक्षात परब्रह्म तस्मैव श्री गुरुवे नम:। छात्र तो इस पर अमल कर लेगें लेकिन लेकिन अब वो गुरु कहाँ से लाएँगे चिराग को जो बुझ चुका है.... क्या गुरु अपने पद से गिर नहीं गये। इन पदच्यूत गुरुओं के साथ व्यवहार क्या होना चाहिए ये तो आप ही तय करेंगे।

निर्दयी प्यार......

दो दिन , और दो घटनाएं जीने मरने की कस्में खाना , हर सुख दु:ख में साथ निभाने का वायदे हर प्रेमी- प्रेमिका करते है। प्रेमी की एक झलक पाते ही भूख प्यास सब कुछ मिट जाती है। प्यार करनेवालों की अपनी एक अलग ही दुनिया होती है। किसी की भी परवाह नही, कभी कभी तो समाज से बगावत करने में भी ये हिचकिचाते नही, अपने ही दुनिया में मस्त रहते है, हमेशा ही एक घरौदा बिनते रहते हैं। प्यार में सराबोर प्रेमियों को हर तरफ प्यार ही प्यार नजर आता है। लेकिन यह प्यार जब विश्वासघात में बदल जाए तो रूंह काप उठती है। सात जन्मों तक साथ निभाने की कस्में खाकर अग्नि के सात फेरे लेनेवाले दो प्रेमियों ने पति बनने के बाद छह महीने के भीतर ही अपना राक्षसी रूप दिखा दिया। अपनी पत्नि को घूमने ले जाने के बहाने उन्हे पहाडियों से धकेलकर उन्हे जान से मारने की कोशिश की। हालांकि दोनो पति अपने गंदे मनसूबे में नाकाम रहे। पहली घटना है महाराष्ट्र के पुणे की जहां 20 दिसंबर को पति ने अपने पत्नी को गहरे पानी में धक्का दे दिया। दूसरी घटना है, महाराष्ट्र के महाबलेश्वर की जहां 21 दिसंबर को पति अपनी पत्नि को लेकर पहाडियों के खूबसूरती का नजारा दिखाने ले गया। पति ने अपने राक्षसी रुप दिखाते हुए पत्नी का गला दबाया, जिसके चलते वो बेहोश हो गयी। पत्नी को मरा समझकर उसे उंचाईयों से धक्का दिया। होश आने पर अंधेरे में जंगल और झाडियों से 8 किलोमीटर का रास्ता उस असहाय महिला ने तय किया। रात में गावंवालो से पनाह ली, और अपने माता पिता से संपर्क साधा। पत्नी को धक्का देकर पति तो फरार हो गया लेकिन कानून के लंबे हाथ से बचकर जाता कहां। दोनो बेवफा पति, पत्नियों के शिकायत के बाद सजा काट रहे है। उन्हे कडी से कडी सजा मिलनी चाहिए ताकि इस वाकये को कोई और दोहरा ना सके। प्यार के झांसे में आकर आजतक कई लडकियां बर्बाद हो चुकी है, उसमें से कई एकतरफा प्यार की शिकार हुई हैं। लडकियां, महिलाएं आए दिन पुरूषों के अत्याचार की शिकार बन चुकी है। नाबालिग लडकियों पर बलात्कार के कई मामले सामने आये है, चाहे वो शहर हो या फिर गांव। नारी शहरी हो या ग्रामीण हवस का शिकार बन ही जाती है। महाराष्ट्र के भंडारा जिलें में नयी नवेली दुल्हन को अपने जीवन की पहली रात ससुर के साथ बितानी पडती है, .यह वहां का रिवाज है। कोई भी लडकी इस बात के लिए कतई –तैयार नही होगी। सिक्के का दूसरा पहलू भी है। कई ऐसे परिवार है जिन्होने प्यार का साथ दिया है। कईयों ने प्यार के लिए मौत को भी गले लगा लिया। यह सच है की आए दिन महिलाओं पर हो रहे अत्याचार का ग्राफ बढता ही जा रहा है। अगर पति- पत्नि में अनबन हो या परिवार में खटास हो तो मामले को मिल –बैठकर सुलझाया जा सकता है या फिर ना सुलझे तो अलग होकर अपनी अपनी जिंदगी खुशी से बिताये। किसी को जिंदगी नही दे सकते तो उसे छीनने का भी किसी को कोई अधिकार नही। कहते है प्यार बांटने से बढता है, लेकिन इन सब घटनाओं को देखकर प्यार के नाम से डर लगने लगा है। आज की महिला और पुरूष दोनो सजग है लेकिन कहते है ना की प्यार अंधा होता है, सजगता की आखों पर भी पट्टी बंध जाती है। समाज, और परिवार में कटुता आ ही जाती है। प्यार किया नही जाता, हो जाता है, दिल दिया नही जाता खो जाता है। यह बात सोलह आने सच तो है लेकिन अगर किसी से प्यार हो जाए तो उसे इमानदारी से निभाये। अंतर आत्मा की आवाज सुने। धोखा देना बडा आसान होता है, लेकिन घोखा देनेवाला सबसे बडा भिखारी होता है...प्यार सिर्फ जीवन में एक बार ही होता है। क्योकि कसमें तो उसने भी खायी ही होगी और जीवन भर वो उस प्यार की तलाशने करता रहेगा ......

Monday, December 21, 2009

भगवान अब तो मौत दे दो....

अरूणा शानबाग.... 61 वर्षीय महिला.. जो पहले सबों का ख्याल रखने में कोई कसर नहीं छोडती थी। आज ना ही देख सकती है, न सुन सकती है और ना ही महसूस कर सकती है। कौन अपना कौन पराया उसे कुछ भी पता नही। आज अरूणा जिंदा लाश में बदल गयी है जो दवाईयों की बैसाखियों के सहारे जीवन व्यतीत करने पर मजबूर है। हां उसे मजबूर ही कहेंगे क्योकि पिछले 36 साल से वो कोमा में है, हाथ-पैर टेढे हो चुके है, दिमाग बंद है, संवेदनाएँ कुछ भी नही। कौन खाना खिला रहा है, कौन उसे स्नान करा रहा है ,किसी बात का उसे इल्म नही। 36 साल पहले अरूणा हैवानियत की शिकार हुई। शिकार भी ऐसे की सीधे वो कोमा में चली गयी। अरुणा को हैवानियत का शिकार बनाया उसी अस्पताल के कर्मचारी ने । उसने अरूणा को मरने के लिए छोड दिया है। अरुणा को देख कर हर किसी किसीका दिल पसीज उठता है। अरूणा के वकील ने उसके मृत्यु की याचना की है, सुप्रीम कोर्ट में। उनके साथ हुए कुकर्म का उन्हे इंसाफ तो नही मिला, लेकिन जिंदा लाश ढोना अब मुमकिन नही। अरुणा की कहानी सुनकर और हालत देखकर कलेजा कांप उठा उठता है। कोर्ट से यही निवेदन है कि उन्हे इज्जत की मौत बख्श दे। खत्म कर दे उनकी शारीरिक पीडा को। जीवन के 36 साल से शारीरिक और मानसिक पीडा से बेहाल अरूणा की देखभाल मुंबई के के.ई.एम अस्पताल की नर्सें और कर्मचारी कर रहे है। अरूणा का बस यही परिवार है, जो कि खून के रिश्ते से बढकर। खून के रिश्तेदार भी तिमारदारी करने में हिचकिचाते है, लेकिन अस्पताल कर्मी नही। उनको तो सलाम है, लेकिन आज भगवान के अस्तित्व पर शंका हो रही है। भगवान को माननेवालों में से मैं जरूर हूं, लेकिन आज इस दर्द को देखकर लग रहा है कि भगवान है ही नही, होते तो इतने निष्ठुर नही होते। सरकार से निवेदन है कि कानून में कुछ प्रावधान करें ऐसे मार्मिक मामलों की तह में जाकर के पीडितों के दु:खों को दूर करे। उस फाईल को खोलकर उस वहशी दरींदे को मृत्यूदंड की सजा सुनाये जिसने एक नाजूक सी जिंदगी को बर्बाद कर दिया।

Tuesday, December 15, 2009

इन्सानियत भी मर चुकी…........

आतंक का हमला वो भी संसद पर इसके आठ साल बीत गये। इस आतंक का खूनी खेल खेलने वाले दोषीयों को सजा देना तो दूर की बात लेकिन अपनों को श्रध्दांजलि देने के लिए भी सासंदो ने पीठ ही दिखाई। इन शहीदों की शहादता का ये बदला क्या लेगें अपनी ही लाज छुपाने के लिए घरों में दुबके रहे। सुरक्षा कर्मियों ने अपनी जान की बाजी लगाकर संसद पर हमले करनेवालों की खबर ली लेकिन उनके लिए दो पखुंडियां फुलों की श्रध्दांजलि देने के लिए भी नेताओं को फुरसत नही मिली। नेताओं के लिए संडे यानी फन डे, मौज मस्ती का दिन। एसी कमरों में रहकर के ये कामकाज से थक गये हैं सो सूकून पाना इनके लिए थायद सबसे जरुरी था। रीलैक्स होने के लिए किसी ने मना नहीं किया था बस जरूरत थी इन वीरों के लिए थोडी सी अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करने के लिए भी। सिर्फ कुछ समय निकालकर अगर शहादत की लाज रखते तो लोगों की नजरों में उनका सम्मान और बढ जाता। शहीदों के परिजन अभीतक मुआवजे से महरुम हैं, वहीं दूसरी ओर उन शहीदों के परिजनों का मजाक बनाकर रखा गया है। सांसदो ने अपने जान की रखवाली का शुक्रिया अदा करना तो दूर की बात आगे चलकर यह सरेआम कहने में भी नही हिचकिचाएंगे की सुरक्षा कर्मी तो होते ही है देश की सुरक्षा के लिए, और शहादत के बाद उनके परिजनों को मुआवजा भी मिलता है। 26/11 के हमले के बाद रतन टाटा ने ताज में मारे गये लोगों के परिजनों और जख्मियों को घर पर रखकर सैलरी दी, उनके बच्चों के पढाई का खर्च भी उठा रहे हैं। और भी बहुत कुछ कर रहे है। जिसका उन्होने प्रदर्शन भी नहीं किया है। ये बात अलग है कि उनके पास पैसा है लेकिन इतना भी नहीं कि सरकार से ज्यादा जिसे हम और आप अपना मालिक ही समझते हैं। लेकिन इन्सानियत को देखते हुए इन पीडितों से रतन टाटा मिले और पीडितों का ढांढस भी बंधाया। नेताओं को अपने जेब से मुआवजा या मदत नही देनी थी,वो लोगों का ही पैसा होता है। सीमा पर लडनेवाले, देश पर शहीद होने वाले, देश के लिए मर मिटनेवाले लोगों की कद्र नही होगी तो आगे चलकर कोई मां, कोई पत्नी , कोई पिता या भाई अपने बेटे या बेटी को देश के हवाले करने से पहले सौ बार जरूर सोचेगा। देश प्रेम तो जरूर होगा लेकिन सरकारी उपेक्षा उसपर हावी रहेगी जिससे पूरा परिवार जीते जी रोज रोज मरता रहेगा।

Monday, December 14, 2009

पा ने पा ली दिल की राह

कल मैने भी पा देखी, सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के जरिये साकार किए ऑरो के किरदार को मेरा सलाम। उनके अभिनय में शायद ही कोई ऐसी जगह हो जहाँ खामियां निकाली जा सके। ऑरो का किरदार निभाने में उन्होने इस उम्र में जो मेहनत की है, उसके लिए शब्द ही नही है, हालांकि अमित जी इस भूमिका को महज भूमिका मानते है। उन्हे लगता नही कि उन्होने कोई अदभूत काम किया है। उनके अभिनय, और सहनशीलता को लाखों बार नमन कर सकते हैं। बढती उम्र में कलाकार पिता, दादा या नानाजी का किरदार निभाते है लेकिन अमिताभ बच्चन मेरी नजरों में अमिताभ बच्चन जी बन गये हैं। ऑरो के किरदार के लिए घंटो मेक-अप करके आवाज में बदलाव लाकर अपने नाते पोतीयों के रहन- सहन, चाल- ढाल को देखकर ऑरो को सौ प्रतिशत न्याय दिलाया है। प्रोजेरिया से पीडित बच्चे तो हमारे देश में है लेकिन “पा” के जरिए उनकी पीडा के बारे में जानने का मौका मिला है। इस बिमारी से पीडित बच्चे बुजुर्गों के तरह दिखते है, साथ ही लोगों के मजाक का विषय भी बनते हैं। ऑरो के किरदार ने छत्तीसगड में पल रहे दो जुडवा बच्चों पर रोशनी डाली है। उनके पालन पोशन के लिए उनके माता –पिता को किस तरह की परेशानी आ रही है इसका पता भी चल गया। उनकी परेशानी और दुख दर्द को देखकर मन बडा ही आहत हुआ। लेकिन ऑरो और इन बच्चों में काफी असामानताएं है। दिखने में ये बच्चे उम्रदराज लगते हो, लेकिन ऑरो से काफी अलग। ऑरो स्कूल जाता है, उसके दोस्त, प्रीसींपल, टीचर सभी उसके सेहत का ख्याल रखते हैं, और तो और उसकी मां एक डॉक्टर है जो उसकी सेहत का हर पल खयाल रखती है। ऑरो को सारी सुविधांए है, पढाई के लिए कॉम्प्युटर, खेलने के लिए गेम ।वावजूद इसके ऑरो 13 साल के उम्र में ही चल बसता है। इस बिमारी और उसके पीडा के बारें में जानने को मिला। उसके लाईइलाज होने की जानकारी भी मिली। लेकिन गरीब घर में पैदा होनेवाले कई ऑरो को ना तो डॉक्टरी सुविधा मिल पाती है ना ही स्कूल जाना नसीब होता है। प्रोजेरिया पर आनेवाले कुछ सालों में इलाज निकलने की संभावना तो है, लेकिन उसका खर्च करना आम आदमी के लिए नामुमकिन। स्थानीय प्रशासन को इन बच्चों के इलाज का खर्चा उठाकर उन्हे कुछ ही दिन के लिए सही लेकिन जीने की उम्मीद दिलानी चाहिए, जीवन में भरपूर खुशियाँ बिखेर देनी चाहिए।

आत्महत्या की वजह शराब या बरसात का पानी

हमारे राजस्व मंत्री नारायण राणे कहते है कि महाराष्ट्र में विदर्भ के 6 जिलों में शराबबंदी कराई जाए ताकि वहां के किसानों को आत्महत्या से बचाया जा सके। मंत्री जी के मुताबिक किसानों की आत्महत्या का कारण है शराब। शराब की बातें कह कर मंत्री जी ने किसानों के मुंह पर सरासर तमाचा जड दिया है। उनकी गरीबी, मुफलिसी और लाचारी का खुल कर मजाक उडाया मंत्री जी ने। शराब सिर्फ महाराष्ट्र के 6 जिलों के किसान ही नही बल्कि देशभर में कई लोग पीते हैं। शराब कुछ हद तक बर्बादी का कारण हो सकती है, लेकिन जहां बरखा रानी ही अपना मुंह मोड ले वहां किसान अपनी फसल के लिए कहां से पानी लाए। गनीमत है कि महाराष्ट्र में फसल बरबाद हो जाते हैं तो काजू और अंगूर के सहार किसान कुछ कमा लेते हैं जिससे उनके खाने का जुगाड भर होकर के रह जाता है। महाराष्ट्र के अन्य जिलों के मुकाबले विदर्भ का किसान ज्यादा परेशान है। मुफलिसी तो जैसे उनकी किस्मत ही बन गयी है जिससे साफ लगता है कि, इन गरीब किसानों से इस जीवन में तो यह साथ छोडने से रही अगले जन्म के लिए भी शायद ही छोडे। विदर्भ के भंडारा में इस साल दोबारा हुई बरसात ने किसानों की उम्मीद जगाई लेकिन धान का बीज डालने के बावजूद भी फसल नही आयी क्योंकि बीजों की किस्म ही खराब बल्कि नकली थे। किसान इतना आहत हुआ कि अपनी मेहनत से उगाई गई फसल में ही आग लगा दी। जबकि उसको पता था की खेत जलाने का मुआवजा उसे मिलनेवाला नही। मंत्रीयों के भी खेत खलिहान है, वहां चौबीसों घंटा पानी मिलता है। फसल लहलहाती रहती है। फसल के दाम भी अच्छे खासे मिलते है। मंत्रीयों के शक्कर के कारखानों का बिजली बिल का बकाया लाखों रूपये है। वहीं दूसरी ओर विदर्भ में कुछ समय के लिए भी बिजली नसीब है। पानी है, तो बिजली नही और बिजली है तो पानी नही। नकली बीज,नकली खाद। फसल की बर्बादी के बाद सब कुछ गिरवी रखने के बाद भी दो वक्त की रोटी नसीब नही। विलासराव देशमुख ने भी एक बार कहा था की कपास की पैदावार करनेवाले किसान कपास बेचते वक्त उसमें पानी और पत्थर मिलाते है। किसानों की आत्महत्या अब इतनी सस्ती हो चुकी है की प्रधानमंत्री द्वारा आनन फानन में पैकेज जारी करने के बाद भी कईयों तक अभीभी मदत की राशि पहुँच नही पायी है। किसानों की आत्महत्या बहुत ही सस्ती हो चुकी है, क्यों की आश्वासनों का पुलिंदा देकर जीत कर आनेवाले नेता चाहे वो सरकार में बैठे हो या विपक्ष में उनसे पूछने वाला कोई नही। खून पसीने से मिट्टी से सोना उगानेवाला किसान मिट्टी में मिल जाए इन खद्दरधारियों को कोई फर्क नहीं पडता। मौत सस्ती हो गयी है, नेताओं की मौज पर कोई रोक नहीं ये जरुरी है। किसान जय नहीं रहा अब किसानों पर राजनीति करने वालों की ही जयजयकार है इनकी मोटी खाल पर कुछ भी असर नहीं पडता।

Saturday, December 5, 2009

पानी का शिकार.

पानी रे पानी .... इस मचे हाहाकार के चलते,हालही में स्वाभिमान संगठन के कार्यकर्ताओं ने मुंबई महानगरपालिका पर मोर्चा निकाला था, लेकिन मोर्चे पर पुलिस ने बेरहमी से लाठीचार्ज किया, जिसमें एक की मौत हो गयी और कई घायल भी हुए। बेरहमी से लाठीचार्ज करना सरासर गलत तो था ही, लेकिन मंत्रीयों की माने तो लाठीचार्ज जरूरी नही था, और पुलिस की माने तो वक्त की नजाकत। पानी की किल्लत और वॉटर माफिया का फैलता जाल मुंबईकरों के लिए कोई नयी बात तो नही है। मुंबई में कहीं चौबीसों घंटो पानी है तो कहीं एक बाल्टी पानी के लिए भी लोग तरस रहे हैं। रात रात भर जग कर पानी ढोना पडता है तो कहीं जेब खाली करनी पडती है। जिनके पास पानी खरीदने के लिए पैसे है, वो तो खरीद लेते है, मगर दिन भर की मजदूरी करके दो वक्त का खाना जुटाना जिनके लिए मुश्किल है वो पानी कहां से खरीदे। गंदे पानी से ही गुजर बरस करे तो कई बिमारीयों को न्योता। आखिर पानी जाता कहां है? लोगों को पानी खरीद कर क्यों पीना पड रहा है? असल में लोंगों के हिस्से का पानी जाता है बिल्डरों को और ये बात कोई नयी नही है कि राजनेता चाहे वो बडे स्तर के हो या छोटे स्तर उनके आदेश पर ही पानी कनेक्शन जोडा या हटाया जाता है। अब आम जनता के लिए मोर्चा का आयोजन करनेवाले नेताओं के घर पर तो चौबीसो घंटे पानी बहता है, आश्चर्य है कि उन्हे आम लोगों के लिए रास्ते पर उतरना पड रहा है। आम आदमी निकल रहा है रास्ते पर बस इसी उम्मीद की टिमटिमाती रौशनी में कि किसी न किसी तरह उनकी मुश्किले तो कम होगी।लेकिन बदनसीबी उनकी है कि उन्हे भी सहारा लेना पड रहा है किसी न किसी राजनितीक पार्टीयों का, पार्टियों को भी जरुरत है अपनी वजूद के साथ साथ प्रभाव दिखाने की। वार्ड स्तर पर पार्षदों ने अगर ईमानदारी रखते हुए पानी की हेराफेरी रोकी होती तो पानी के किल्लत से लोगों को कतई नही जुझना पडेगा। शिवसेना- भाजपा ने महानगरपालिका पर अपना फिर अपना झंडा फहराने में कामयाबी तो पायी है, लेकिन करोडो रूपये टैक्स देने के बाद भी अगर लोगों को सुविधाएं नही मिली तो अगली बार महानगरपालिका में बची सत्ता के साथ राज्य भर में रही सही अपनी साख भी गवाने की नौबत आन पड सकती है। जनता ने इनलोगों के लिए एक मौका अब भी बरकरार रखा है। अगर जनता को ये जनता के प्रतिनिधि लाठियों के बजाए न्याय नहीं दिला सकते तो इनके लिए ये भी तो नहीं कहा जा सकता कि चुल्लू भर पानी में डूब मरो बेशर्मो... पानी तो न डूबने के लिए ना ही जीने के लिए डकार गये.. ये कालाबाजारी के ठेकेदार....

Saturday, November 28, 2009

शहादत को सलाम.....

देखते ही देखते हमारे शहर और जेहन पर आतंकी हमले हुए एक साल का लम्हा बीत गया। सबसे पहले उन तमाम शहीदों और आतंकियो के शिकार हुए उन बेकसूर लोगो को याद कर तहे दिल से भावभिनी श्रध्दांजली। सारे देश ने अपने अपने तरीके से शहिदों को श्रध्दांजली अर्पित की। एक साल का समय तो बीत गया लेकिन लोगों के जख्म अभी भी हरे है। उस हमले को याद करके, वो मंजर देखकर आज भी सारा बदन कांप उठता है। एक ओर पीडितों के परिवारवालों का अकेलापन, अपने को खोनो का गम वहीं दूसरी ओर देश के लिए अपना कोई शहीद हुआ इस बात का गर्व भी और गुमान की हमारे यहाँ अभी भी वो लोग हैं जो अपने से पहले दूसरों के बारें में सोंचते हैं। साल भर उनपर क्या बीता यह देखकर आंसुओ का सैलाब उमड पडता है। कलेजा मुँह को आता है कि आतंकियों के जरिये खेले गये खूनी खेल के एक साल हो गये लेकिन शहिदों के परिवारवालों तक अभी भी मदतके हाथ तक नहीं पहुँचे। उनके आँसूओं को पोछने वाला कोई नहीं पहुँचा केवल शहादत के चर्चे खूब हुए। सरकारी वयव्स्था की निकम्मापन इतनी की शहीदों की पत्नियों को कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी से गुहार लगाने के लिए दिल्ली तक का सफर तय करना पडा। जहां एक ओर शहिदों और पीडीतों के परिवारवालों को मुआवजे के लिए सरकारी चौखटों पर अपनी एडिंया रगडनी पड रही है, वहीं जिंदा बचे आतंकी अजमल कसाब की सुरक्षा के लिए सालभर में 31 करोड रूपये खर्च हो चुके है, और मुर्दा घरों में रखी लाशे संजाये रखने के लिए लाखों रूपयों के वारे न्यारे हो चुके है। ये कौनसा इन्साफ है शहादत का कर्ज चुकाने का । अब एक साल बाद मानवीय और वित्तीय क्षति के बाद सरकार जगी है। अब प्रमुख जगहों पर चाकचौबंद सुरक्षा तैनात है, मुंबई पुलिस आधुनिक हथियांरो और साधनों से लैस है। सरकार से बस इतनी ही गुजारिश है कि शहिदों और हमले के शिकार हुए लोगों के महज पुतले या स्मारक बनाकर शहिदों का मजाक मत उडाए। इसबार हुए आतंक के खूनी हमले से सबक ले, कम्यों को पता कर सुधार करे। मुंबई की जनता आपके साथ तब खडी रहेगी जब आप शहादत से सबक ले, मुम्बईकर अपने अब और बेटे, भाई और पतियों को खोने की तमन्ना नहीं रखता। सुरक्षा में हुई चूक, बल्कि गलतीयों के अंबार को वक्त रहते ही सुधार ले। दोबारा मौका मिला है शायद आगे ना मिले..... कहीं फिर कोई लाल फिर अनाथ ना हो जाए....

Wednesday, October 7, 2009

चुनावी दिहाडी

बरसात तो अच्छी हुई किसान भी फिर से धरती का सीना चीरकर हल जोत कर फसल लहलाने लगे। अब खेतों में लगी लहलहाती फसल के कटाई की बारी आयी । किसान तो हर साल धरती पर अपना पसीना गिराते हैं और फसल काटते हैं, बेचारे गरीव किसान दिन रात धूप में पसीना बहा कर धरती से अनाज उगाते हैं। लेकिन हमारे देश के कुछ किसान हैं जो कि एयरकंडीशन में ही रहते हैं वो हैं हमारे राजनेता उनकी पाँच साल बाद आने वाली चुनावी फसल लहलहा रही है। जिसके चलते हमारे खेतों में काम करने वाले मूल किसानों के पास फसल की कटाई के लिए मजदूरों की किल्लत है। खाने की जब बारी आयी तो कहावत बन पडी कि अब चने है , तो दांत नही। पैसे लगाकर फसल तो अच्छी आयी है लेकिन अब कटाई के लिए मजदूर ही नही है। अचानक से खेतों में मजदूरों की किल्लत आन पडी है ,क्योंकि चुनावी फसल लहलहा रही है। दस से बारह घंटे खेतों में पसीना बहाकर कमरतोड मेहनत करके जीतने पैसे नही बनते उतने पैसे चुनावी रैलियों में शामिल होने के लिए मिल रहे है। इन लोगों को करना होता है केवल हाथों में झडें लेकर एयरकंजीशन में रहनेवाले किसान रुपी नेताजी की जयजयकार करनी पडती है चाहे वो नेता उनके लिए कुछ करे या ना करे। खेतों में काम करने के बजाए रैलियों में शामिल होना महिलाएं ज्यादा पसंद कर रही है। राजनीतिक पार्टीयां बच्चों का भी खूब इस्तेमाल कर रही है। छोटा कद कम पैसे, और खाने के लिए कुछ नाश्ता इसी में बच्चों को बहला लिया जाता है। रैलियों में शामिल होने के कुछ फायदे हैं तो कुछ नुकसान भी होता है। नासिक में कुछ महिलाओं को सौ रुपये देने का वादा किया गया लेकिन दिन भर के बाद उन्हे पचास रूपये थमाकर उनके साथ मार पिटाई भी की गयी। राजनीतिक पार्टीयां लोगों से ही वोट मांगती है और वोट मांगने के लिए उनका ही इस्तेमाल कर रही है। चुनावी फसल की कटाई के लिए मजदूरों की कमी नही है, लेकिन पेट भरने के लिए अनाज अगर खेतों में ही रहकर खराब हो जाएगा तो फिर एक बार मंहगाई की मार से कोई नही बच पाएगा। एयरकंडीशन में रहने वाले तथाकथित किसानों को कुछ असन नहीं पडेगा।एक बार फिर मारा जाएगा तो देश का गरीब किसान.....

Monday, October 5, 2009

पालनाघरों के शिकार

पुणे में मासूम सी नन्ही बच्ची को कपडे को प्रेस करने वाले इस्त्री से जलाकर दाग दिया गया,कसूर महज इतना था कि नन्ही सी जान धीरे धीरे खाना खा रही थी, और भूख नहीं होने से खाना खाने से इन्कार कर रही थी। मंहगाई के इस दौर में एक आदमी के आमदनी पर घर खर्च चलना मुश्किल ही नही नामुमकिन है। इसलिए पती पत्नी को अपने नन्हे बच्चों को पालना घर में रखना पडता है। पालना घर में बच्चों को रखना खतरे से खाली नही, लेकिन सभी पालनाघर ऐसे नही है। उनका लक्ष्य सिर्फ पैसे कमाना नही है। प्यार के मोहताज ये नही समझ पाते की पालनाघर वाली आंटी उसका ख्याल प्यार से नही बल्कि पैसे के लिए कर रही है। मासूम बच्ची को इस्त्री गर्म करके जलाना हैवानियत से कम नही है। महज खानापूर्ती के लिए बच्चों की देखभाल करके पैसा कमाने का चलन ही निकल पडा है। हर गली मुहल्ले में कुकुरमुत्तों जैसे बने पालनाघरों की विश्वसनीयता जांच लेना बहुत जरूरी है वर्ना अभिभावकों पता भी नही चलेगा की उनके कलेजे के टुकडों के साथ किस तरह का बर्ताव हो रहा है, नही तो बच्चों के जान पर बन आने के बाद ही माता पिता को खबर लग पाएगी। मां- पापा भी यह जान ले की अपने घरवालों को सिवाए बच्चों को प्यार देने का नाटक करने वाले गैरों को लगाव कम ही होगा। साथ ही अवैध तरीकों से महज पैसो के लिए पालनाघर चलानेवालों पर सख्त से सख्त कारवाई होनी चाहिए।अगर ऐसा नही हुआ तो इनका शिकार कोई मासूम जरूर होगा। हमारे समाज में पैसा तो जरुरी है लेकिन किसी के ममता को गला घोंट कर पैसा कमाने वाले क्या चैन से रह पायेंगे... आखिर वो भी किसी के माता पिता ही होगें। कुछ लोग कहते हैं कि पैसा खुदा नहीं है लेकिन पैसा खुदा से भी कम नहीं है....लेकिन बच्चे तो भगवान के रुप होते हैं.. तब उनके साथ क्या ऐसा व्यवहार करना भगवान के साथ अन्याय करना नहीं होगा।

Saturday, October 3, 2009

चुनावी घोषणापत्र- वादो का पुलिंदा

लगभग सभी राजनितीक पार्टीयों ने साझा चुनावी घोषणापत्र जारी किया है। घोषणापत्र क्या चुनावी वादो का पुलिंदा ही समझ लो। शहरी लोगों को तो पता चल गया होगा की हर पार्टी ने उनके लिए कौनसे वादे किये है, लेकिन खेत खलिहानो में काम करनेवाले किसानों को पता ही नही की उनके लिए आनेवाली सरकार क्या करने जा रही है। क्योंकी घोषणापत्र में किए गये वादे उनतक पहूंचने का साधन तो उनके पास होगा लेकीन वो साधन चल ही नही पाता क्योंकी बिजली तो हमेशा ही गूल रहती है। हर पॉलिटीकल पार्टी के लगभग एक ही जैसे वादे है। गरिबी रेखा के नीचले लोगो के लिए 2रूपये किलो अनाज, लोडशेडिंग मुक्त महाराष्ट्र, ग्राम सडक विकास , मुंबई को आनेवाले पाच सालों में अंतरराष्ट्रीय दर्जे का शहर बनाने की योजना, भूमिपुत्रों को नौकरीया और ऐसे कई अनगिनत वादे। सभी पार्टीयों ने पाचं साल पहले किए वादों को फिर एक बार दोहराया गया। बडी ही हास्यास्पद बात लगती है की किसानो ने कभी भी मुक्त बिजली या कर्जे कि मांग नही की, लेकीन महज वोटो के लिए किसानों को लुभाया जा रहा है। 2 रूपये किलो से अनाज मिलना मुश्कील ही नही बल्की नामुमकीन है। दिन ब दिन महंगाई तो मुँह बाए खडी है और कालाबाजारीयों ने अपनी जडे जमा ली है, मंहगाई में आटा गिला । आनेवाली सरकार से आम लोगों की बस यही अपेक्षा होगी की मंहगाई की मार उन्हे झेलनी न पडे। किसानों को राहत और युवाओं को कमाई का साधन मिले । बडी बडी घोषणा करके हर पार्टीयां अपनी अपनी रोटी तो सेक रही है, वहीं चुनावों में करोडो रूपयों का वारे न्यारे हो रहे है। लेकीन लोगों के विकास के लिए किसी भी पार्टीयों की जेब ढिली नही हो रही है। लोगों को आनेवाली सरकार से वादों का अंबार नही, बल्की घोषणापत्र में दिए गये हर एक बात पर अमल होना चाहिए, फिर चाहे सरकार किसी की भी हो। वरना जो लोग सरकार बनाना जानते है वो सरकार गिराना भी जानते है।

Thursday, September 3, 2009

अगले बरस तू जल्दी आ

आज ब्लाग की फिरसे एक बार शुरूवात कर रही हूं। गणेशोत्सव के दस दिन कैसे बीत गये पता ही नही चला आज विघ्नहर्ता की विदाई है, अगले बरस तू जल्दी आ के नारे से मुंबई और महाराष्ट्र सराबोर है, आँखे भी नम है, लेकीन उत्साह में कुछ कमी जरूर आयी है। सबसे पहले तो आध्रं के मुख्यमंत्री के साथ हुए हादसे ने पुरे देश को ही हिला दिया है। अचानक हुए हादसे को भुला पाना आंध्र के जनता के लिए मुमकीन बात नही है, और ये मुमकीन भी नही है। गरीबों का मसीहा कहे जाने वाले मुख्यमंत्री के चले जाने से परिवार का दुख तो कभी कम नही होगा साथ ही गरीबों के होंठो पर खुशी की लहर लानेवाले प्यारे मुख्यमंत्री को आम जनता तो नही भुला सकती। भले ही मुंबईकर बाप्पा की विदाई में सराबोर है , लेकीन मन में बसे दर्द को छुपाए हुए है। मुंबईकर कई दिनों से जिन परेशानीयों का सामना करते जी रहे है वहीं चंद खुशीयां देनेवाला महोत्सव आज खत्म हो जाएगा। संकट का सामना करना अब देशवासी बखूबी सिख गय है। गणेशोत्सव के दस दिन अपने आराध्य की पूजा करके लोग संतुष्ट तो हुए है साथ ही उनकी जिंदगी में चंद खुशीयां भी आयी। सबोने उनके घर परिवारवालों को खुश रखने के साथ साथ देश के हर विघ्न हरने करने की कामना भी जरूर की होगी। अब दस दिन की खुशीयों के बाद देशवासी तैयार होगें महंगाई, सुखे गरिबी, मुफलीसी का सामना करने के लिए। गणपति बाप्पा मोरया अगले बरस तू जल्दी आ तब तक हम तैय्यार है हर परेशानियों का सामना करने ।

Thursday, April 9, 2009

चुनाव और पैसे की बाढ़....

आगामी लोकसभा के लिए चुनाव होने जा रहे है। सभी पार्टीयों ने अपने अपने उम्मीदवार चुन लिए है, और प्रचार के लिए पूरे देशभर में रैलीयों का आयोजन किया गया है। बडे बडे दिग्गज नेता अपने चुनाव क्षेत्र के साथ-साथ पार्टी के उम्मीदवारों के लिए भी वोट मागं रहे है। राजनीति के बारे में मैं बहुत कुछ तो नही जानती लेकिन आम आदमी के जेहन मे जो सवाल उठते होगें वो मेरे भी दिमाग में रह-रह कर आते है। देश के बडे से बडे नेता के पास न रहने को घर है , ना ही चलने के लिए गाडी। नॉमिनेशन फॉर्म में तो कईयों ने लिखा है कि वो सरकारी घर में रहते है, किसी की संपत्ति पुश्तैनी है तो किसी के पास गुजर बसर करने के लिए थोडा सा धन। एक आम आदमी कैसे यकीन कर सकता है की देश को चलाने वाले नेताओं ने ईमानदारी से अपने संपत्ति को ब्योरा दिया है। कई नेताओं के संपत्ति का ब्योरा देखकर तो कई मध्यमवर्गीय लोगों को लगता होगा कि हम इन नेताओं से अमीर है। लेकिन ऐसा नहीं है हालात ये है कि इन नेताओं की अरबों की काली कमाई विदेशी बैंकों में जमा है। अगर वो सारी रकम अपने देश में आ जाए तो हर किसी के लिए घर बन सकता है और हर किसी के खाने की समस्या दूर हो सकती है। लेकिन ये सांप की तरह अपनी काली कमाई पर कुंडली मार कर बैठे हैं। ना ही इस काली कमाई को कोई ब्योरा भी देने की जहमत उठाते हैं बस लगे रहते हैं दोनों हाथों से पैसे बटोरने में। आखिर सवाल उठाता है कि इन खून चूसनेवाले जोकनुमा नेताओं से कैसे बचा जाए। अगल-बगल की दुनिया देख चुके लोग भले ही कुछ सजग हो जाएगें लेकिन अधिकांश जो कि इन वितारों का कत्लेआम मचानेवाले लोगों के बारें में समझ ही नहीं पाते आर उनके विचारों से अनजान रहते हैं एक बार फिर छले जाएँगे। लेकिन कई ऐसे भी नेता है जिनकी संपत्ति कई करोड है, उन्होने अपने ब्योरे दिए हैं। लेकिन क्या उन्होने भी ईमानदारी से अपने संपत्ति का ब्योरा दिया है ? क्या आम आदमी इतना बेवकूफ है कि उसे इस तरह दिन ब दिन बेवकूफ बनाया जा रहा है। दो वक्त के रोटी का जुगाड करनेवाले मतदाता को रिझाने का यह पैतरा कितना कामयाब होगा पता नही, लेकिन मतदाता को उल्लू बनाकर अरबो रूपये का धन जमा करनेवाले नेताओं पर कितना यकीन रखना है, ये अब सजग होकर मतदाता को ही सोचना होगा।

Monday, April 6, 2009

बहशी पापा को मौत दे दो ....

कहते है लडकियां पापा की लाडली होती है, यह सिर्फ कहना ही नही है, मैं खुद बेटी होने के नाते यह महसूस भी कर रही हूं। इसके साथ ये भी लग रहा है कि अब आज पता नहीं क्यों आज के पापा अपने गरीमा को तोड रहे हैं। हकीकत ये है कि एक बेटी ने अपने बाप के लिए कानून से मौत मांगी है। मांगे भी क्यूं नही, ऐसे वहशी बाप के लिए तो मौत भी आसान ही सजा होगी। इस आसान मौत से उस पिडित लड़की का दर्द तो कम नहीं होगा लेकिन उसे जरुर तसल्ली होगी। बाप ने बेटी के साथ बलात्कार किया है, वो भी एक बार नही सालों से वो मासूम अपने बाप के हवस का शिकार बन रही । जब छोटी सगी बहन भी बाप के हवस का शिकार बनने जा रही थी, तब बडी बहन को अपनी चुप्पी तोडनी ही । अपने जीवन को तो बरबाद करनेवाले को बडी बहन तो अपनी चुप्पी से छुपाए थी लेकिन छोटी बहन को अपनी आँखों के सामने तार-तार कैसे होते कैसे देखती । लेकिन बाप की करतूत,अपने खून के साथ दरींदगी करने का कारण बडा ही हास्यास्पद और खून खौलाने वाला काम है । घर में शांति बनाये रखने के लिए एक तांत्रिक ने यह सुझाव दिया था। वो कैसा पिता होगा जो घर की शांति के लिए अपनी ही बच्ची का इस्तेमाल करता था। सोचने वाली बात है कि घर कि शांति कैसे कायम रह सकती है घर के ही बच्ची को हवस का शिकार बनाने से। लेकिन बच्ची को हवस का शिकार बनते देख रही मां ने भी अपनी चुप्पी नही तोडी। पता नहीं उस परिवार को कौनसी ऐसी शांति की तलाश थी, जो सिर्फ जिस्म की मांग कर रही थी। तांत्रिक और ज्योतिष के चक्कर में हजारो घर बर्बाद हो चुके है, और शायद होते भी रहेंगे जब तक लोग इन तंत्र मंत्र के चक्कर से बाहर नही निकलते. तब तक हवस का शिकार दूसरे नही बल्कि अपने बच्चे भी शिकार बनते रहेंगे। मुंबई की यह घटना उस लडकी की वजह से सामने आयी , लेकिन समय रहते ही अगर उसने अपनी चुप्पी तोडी होती तो आज उस पर अपने बाप के लिए मौत मांगने की नौबत नही आती। बाप के साथ साथ अब तांत्रिक भी जेल की हवा खा रहा है, बेटी का कहना है की मां इस सब के लिए जिम्मेदार नही है,,लेकिन बाप को मौत की सजा दे दी जाए। पिछले दो महीने में महिलांओ पर हो रहे अत्याचार का ग्राफ बढता ही जा रहा है। महाराष्ट्र से हर रोज महिला पर हुए अत्याचार की खबर सुनायी दे रही है। रोज रोज बलात्कार के हादसों से खून खौल उठता है। क्या हासिल होता है महिला पर अत्याचार करके, हवस की आग अगर नही बुझती होगी तो अपने आप को ही खत्म कर लेना चाहिए। मानसिकता बदलना मुश्किल नही है, लेकिन मानसिकता बदलने की तैयार होना भी जरूरी है। अंधविश्वास विश्वास पर हावी होता जा रहा है। भगवान से ज्यादा शैतान का महत्व बढता जा रहा है। अंधविश्वास से कोई धन, शांति, व्यापार, शादी नही होगी, होगी तो सिर्फ बर्बादी और बर्बादी ही।

Sunday, March 15, 2009

जवाब दो.. गाँव के हालात बदलो..

मेरा एक दोस्त है जो वर्षो से मुम्बई में रहता है। वैसे वो है तो रहनेवाला उत्तर प्रदेश का। काम की तलाश में उसके बुजर्ग मुम्बई आ गये और मुम्बई ने वाकई उनको आसरा दिया और वो भी मुम्बई के होकर रह गये। लेकिन अपनी ज़मीन से दूर रहे जरूर लेकिन कटे नहीं। रह रह कर दिल में एक दर्द उभरता रहा कि उनके इलाके में भी ऐसी ही तरक्की होती, तो शायद वो भी अपने ज़मीन से हजारो किलोमीटर दूर नहीं रहते शायद पूरे देश का विकास होता। यही सोचता हुआ गाँव गया, लौटने में कई दिन लग गये। मुझे लगा इस बार फिर वो बदहाली की बातें सुनाएगा। लेकिन इस बार उसका अनुभव बेहद अलग था। गावं से लौटकर उसके चेहरे पर वह खुशी झलक रही थी, चेहरे पर संतोष दिखायी दे रहा था। वो कह रहा था की अब गावं में विकास का काम हो रहा है। पढे लिखे नौजवानों को रोजगार उपलब्ध हो रहे है। घर घर में टेलीविजन और डिश एन्टीना की छतरी लगी दिख रही है। बेरोजगारों को भी दिहाडी मिल रही है। जिन्हे काम नहीं मिला है उन्हें भी भत्ते के रुप में खाते में पैसे जमा हो रहा है। शहर की चकाचौंध से आकर्षित होकर शहर की तरफ दौडनेवाली युवा पीढी अब गांव में रहकर ही व्यापार या नौकरी कर रही है। सडकों का निर्माण हो रहा है, तो अनपढ लोगो को भी रोजी रोटी का साधन मिल रहा है। अचानक तो किसी गांव की या शहर की तस्वीर तो नही बदलती है।लेकिन इस विकास पे पीछे डर ज्यादी हावी है तभी तो आनन फानन में विकास हो रहे हैं। जी हां डर मुंबई से लौटे उत्तर भारतीय अपने सांसदो और विधायकों से काफी खफ़ा है। मुम्बई में जो उनकी दुर्गति हुई उसके जिम्मेदार अपने सांसद और विधायकों को ही ठहराया। साफ तौर पर कह डाला कि अगर रोजगार यहीं मिलते तो दूर देश जाने की कोई जरुरत ही नहीं थी। धमकी दे डाली कि विकास नही तो सरकार को वोट भी नही मिलेगा। चुनावों की सरगर्मियाँ तेज है, ऐसें में अगर वोट बैंक को लुभाने में सासंद नाकाम होता है, तो सत्ता की नैय्या डांवा डोल हो ही जाएगी। मुंबई से अपने प्रदेश लौटे लोग काफी नाराज है। मुंबई में भाषावाद का तो वे शिकार बने ही साथ ही रोजी रोटी का भी साधन छीन गया । कई लोगों के साथ तो मार पीट भी हुई। नतीजा अब यह है की, वे अब अपने राज्य के सांसद से जवाब मांग रहे है। उन्हे अब कोरे आश्वासन नही चाहिए। सह चुके जितना सहना था। उन्हे भी पता चला है, चुनावी बिगुल बज चुका है, और अब बारी है जवाब तलब करने की । यह बात सिर्फ उत्तर भारत तक सीमित न रहते हुए देश के हर कोने तक पहुँचनी चाहिए। हर मतदाता को अपने नेता से जवाब मांगने का अधिकार है, और वोट देकर सही सरकार चुनने का। वोट का प्रयोग अवश्य करे और सोच समझकर करे ताकि विकसित और सुरक्षित देश में रह पाये।

पाकिस्तान के नापाक इरादे...

पाकिस्तान नाम से को साफ है कि पाक- साफ लोगों के रहने का स्थान, लेकिन आज ये पाकिस्तान के फिरकापरस्त लोगों के कारनामे ने नापाक इरादों को साफ कर दिया है। इनके इसी हररकत ने विश्वभर फैले हर पाकिस्तानी पर शक पैदा कर रहा है। हालात यहाँ तक है कि एक फिर सेना अपने मनसूबे बनाने लगी है। पाकिस्तान मे अब सेना शासन लगने के आसार नजर आ रहे। जनता बेबस बस देख भर रही है। लोकतंत्र तो पहले से ही दम तोड़ रहा है,और अब तो आतंकी दूसरे देशो के साथ साथ अब पाकिस्तान पर भी कभी कभार हमला कर दे रहे है। वहीं नवाज शऱीफ ने अब ज़रदारी को चुनौती दी है। मुस्लिम बहुल देश होने के बावजूद लोगों का विकास नही हो पा रहा है। अनपढ़ बोरोजगार युवकों को बरगलाकर आतंक की राह पर चलने को मजबूर किया जा रहा है। अमरिका, भारत के साथ कई देश इन आतंकीयों का शिकार बने है। लेकिन दुनिया की सबसे निंदनीय घटना और शर्मनाक घटना हुई इसी देश में। श्रीलंकाई क्रिकेट टीम पर आतंकीयों का हमला। पाकिस्तान को और कितने सबूत चाहिए आतंकीयो का बेपर्दा करने के लिए । आतंक को पनाह देनेवाला पाकिस्तान अपने देशवासीयों की हिफाजत नही कर पा रहा है। इसकी खुल्लम खुल्ला मिसाल है, स्वात घाटी का । ये वो इलाका जहां लडकियों को पढाया नही जाता। लडकियों के स्कूल जला दिये गयें है। जबरन नन्ही सी बच्चियों की आतंकियों से शादी करायी जाती है। तालीबान की हुकूमत पाकिस्तान तक पहुँच गयी है। आतंक का पनाहगार बनकर अब पाकिस्तान से हर देश का भरोसा उठ रहा है। समाज,देश और जाति की सीमाओं से पार खिलाडियों को भी नहीं बख्शा नहीं इन हैवानियत के पुजारियों ने। शांति के दूत माने जाने वाले खिलाडियों पर गोलियां बरसायी गयी। खतरे की चेतावनी मिलने के बाद भी खिलाडियों के सुरक्षा के लिए पुख्ता इंतजा़मात नही किये गये, उलट पाकिस्तान ने यह तक कह डाला की यह हमला भारत ने किया है। खुले आम आतंकी बाईक पर घूमते है, लेकिन उनका कोई कुछ नही बिगाड सकता। खुद को आतंकवाद का शिकार बताकर मगरमच्छ के आसूं बहानेवाला पाकिस्तान इतना कुछ होने के बावजूद भी भारत की सहायता नही कर रहा है। हर बात से पल्ला झाडकर आतंकियो की हौसला अफजाई कर रहा है। क्यों नही पहल करके प्रत्यार्पण कानून बनाने पर जोर दे रहा है। विश्व में भारत एक शक्ति बनकर उभर रहा है, उसे इतनी आसानी से खोखला नही बनाया जा सकता। भारतवासीयो के बुलंद हौसलों को पस्त करना इतना आसान नही होगा। हर बार सच्चाई से आतंकवाद का सामना करनेवाला भारत आतंकियों की जडे खोदने में एक ना एक दिन जरूर कामयाब होगा। जरूरत है भारतीयों को एक साथ आने की और देश के भीतर के गद्दारों को चुन-चुन कर निकाल फेकने की।

Thursday, March 5, 2009

सपनो का आशियाना

स्लम डॉग मिलेनियर में किरदार निभाकर धारावी का नाम पूरे दुनिया में मशहूर करनेवाली रूबीना को उस दलदल से निकलना मौका मिल रहा है, तो उसके मां का प्यार आडे आ रहा है। म्हाडा रूबीना को आशियाना देकर उसके भविष्य को सवारने का प्रयास करना चाह रही थी, राज्य सरकार ने भी उस पर मुहर लगा दी थी। लेकिन रूबीना नये घर का सपना संजोए उससे पहले ही उसकी मां ने उसके सपनो पंख कतर दिया। रूबीना के सपने सगी और सौतली मां के झगडे में दम तोड रहे है। एक छोटी सी झोपडी में अपने बचपन को संवारने की कोशिश करनेवाली रूबीना के हाथ मौका लगा भी, और उसका नसीब करवट ले ही रहा था कि तभी दो माँओ के झगडे उसकी ख्वाईशों पर पानी फेरते नजर आ रहे है। सगी मां का कहना है कि सौतली मां रूबीना के साथ नये घर में नहीं रहेगी। जबकी सौतेली मां का कहना है कि वह रूबीना की परवरिश कर रही है,तो उसका हक बनता है नये घर में रहने का। उसके अब्बा की भूमिका की क्या बात करें उनकी तो तीन-तीन शादीयां हो चुकी है। नशे की लत सारे परिवार को ले डूब रही है, ऐसे में अगर नन्ही जान रूबीना ने अपने साथ साथ उनको भी एक नयी पहचान दी है। कई घरों में ऐसे बखेडे होते होंगे, लेकिन उन मासूमों का क्या जो इन सबों से कोई लेना देना नहीं होता, उनकी इन झगडों के उपजने में कोई हिस्सेदारी भी नहीं होती। माँ-बाप के झगडें की वजह से अंदर ही अंदर बचपन से लेकर बडे होने तक घुटते रहते है। नन्ही सी कली खिलने से पहले ही मुरझा रही है। प्यार मिलना तो दूर ही रहा लेकिन खुद के बलबूते मिल रहे घर पर विवाद खडा हो गया है। दलदल से निकलने का रास्ता भी मिला तो अपने ही उसमें रोडे अटका रहे है, अपने ही। कमल तो खिला था दलदल में, लेकिन कम से कम अब तो उसकी सही जगह पर उसे जाने देना जाहिए। मुफलिस जिंदगी में अगर रूबीना को पैबंद लगाने का मौका मिल रहा है, तो उसके परिजनों का कोई हक नही बनता कि उसके सपने उससे छीन ले।

Tuesday, February 24, 2009

क्या ब्रैन्ड बन रहा है धारावी...

स्लम डॉग मिलेनियर ने आठ ऑस्कर अवॉर्ड जीतकर दुनिया में अपनी छाप छोडी है। भारत का सबसे पहला संगीतकार ए.आर.रहमान ने दो ऑस्कर अवॉर्ड जीतकर अपने काबलियत पर मुहर लगा दी है। भारत में टैलेंट की कभी कमी नही थी और ना है। यह गुलजार साहब ने और ए.आर.रहमान ने दुनिया में साबित कर दिया है। स्लम डॉग मिलेनियर को ऑस्कर अवार्ड मिलने के बाद सारे भारतवर्ष में खुशी का माहौल है, फिल्म इंडस्ट्री से लेकर धारावी की हर गली तक। लेकिन अब खुशी के साथ विरोध के स्वर भी सुनायी दे रहे है। धारावी की हकीकत को दुनिया के सामने लाने पर कुछ लोगों को आपत्ति है। उनका कहना है की अक्सर फिल्मों में चाहे वो बॉलीवुड की फिल्म हो या हॉलीवुड की घारावी की गंदगी को सामने लाकर उनका मजाक उडाया जाता रहा है। फिल्मों में गरीबी और बदहाली दिखाकर करोडों रूपये कमाये जाते है, लेकिन झुग्गीवासीयों की बेबसी पर किसी की नजर नही जाती। सलाना अरबों रूपयों का व्यवसाय धारावी से होता है, हर तरह का व्यवसाय वहां पर किया जाता है, तंग गलियाँ, छोटे छोटे कमरे लेकिन हर तरफ मेहनत और सिर्फ मेहनत नजर आती है। कुम्हार का काम हो या फिर जरी का, लेदर वर्क हो या फिर पापड बनाने का हर तरफ सिर्फ आपको काम ही काम नजर आयेगा। कई फिल्मों में हमें घारावी की झुग्गी नजर आती है, लेकिन उसका पुनर्विकास नही हो पा रहा है। प्राईम लोकेशन होने की वजह से कई व्यावसायिकों की नजर उस झुग्गी पर है। राज्य सरकार भी धारावी को ग्लोबल बनाने जा रही है, उसके पुनर्विकास के लिए ग्लोबल टेंडर जो मंगवाये है। आज हर तरफ रहमान की जयजयकार है, स्लमडॉग मिलेनियर की जय हो, और धारावी ब्रैन्ड बनती जा रही है। लोगों में धारावी को देखने की ललक पैदा हो गयी है। वास्तव में धारावी को ग्लोबल फेम मिला है, भारतीय कलाकारों की मेहनत को ऑस्कर में सराहा गया है, लेकिन क्या इससे धारावी के निवासीयों की मुश्किलें कम हो पायेंगी। । स्लम डॉग को लेकर कुछ भारतीय निर्माता भी खफा है उनका मानना है की स्लमडॉग मिलेनियर से पहले भी मदर इंडिया, लगान और तारें जमीं पर जैसी बेहतरीन फिल्मे बनायी गयी है, लेकिन उन्हे ऑस्कर पुरस्कार से नहीं नवाजा गया। फिल्म को एक नही दो नही बल्कि आठ ऑस्कर अवार्ड मिले। लेकिन भारत की उस वास्तविकता का क्या जिसे हम सिर्फ फिल्मों में देखकर नाक सिकुडते है, या फिर सच्चाई पर गम करते है। ऑस्कर के बाद अब हर झुग्गीवासी का यह सपना होगा की हमारी झोपडपट्टी भी दुनिया के सामने आये । क्या धारावी सचमुच अब भारत का ब्रैन्ड बनेगा। हमे तो इस बात को बेहद गंभीरता से सोचना होगा कि सैकड़ो हजारों झुग्गियों का कायापलट कैसे होगा। हम और आप तो केवल फिल्म देख भर लेते हैं लेकिन सच्चाई ये है कि लाखों लोगों के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठता। जरी वाले नीले आसमान के तले आकर के एक होने के बाद ही जय हो .. हो पाएगी।

Monday, February 23, 2009

महाशिवरात्री की सभी को बधाईंयाँ।

भगवान में आस्था रखनेवाले या ना भी रखनेवालों को तो यह जरूर पता होगा की शिवरात्री का पावन पर्व याने भगवान शिव और माता पार्वती का ब्याह. हाल ही में मैने एक किताब पढी, हालांकि किताब पौराणिक नही थी, लेकीन यह जरूर कहा जा सकता है कि शिवभक्तों की आस्था को ध्यान में रखकर ही किताब लिखी गयी है। भोले शकंर के हर रूप को साकार किया गया है। या यूँ कहे कि सर्व शक्तिमान भगवान होने के बावजूद भी एकदम सीधे-साधे,भस्मधारण करके तपस्या करनेवाले, ना सिंहासन का मोह,नाही ऐशो आराम का। कहते है भोले बाबा किसी भी भक्त को खाली हाथ नही लौटाते, बस उनकी सच्चे दिल से आराधना करनी होती है। लेकिन वास्तविकता अब कुछ और ही है, भक्त और भक्तों को भगवान से मिलानेवाले पंडो कि निकल पडी है, पूजा तो कराते है, लेकिन वो होती है इस्टंट । जल्दबाजी में मंत्र पढे और निकल लिये दूसरे जजमान के यहां पूजा कराने। जजमान के लिए तो भगवान से मिलानेवाला पंडित ही भगवान समान होता है, भले ही उनके पढे मंत्र समझ में आये या ना आये। दिल में रचे बसे भगवान को प्रसन्न करने के लिए क्या किसी पंडित की सचमुच जरूरत होती है ? इन दिनों भगवान को सोने से मढने का फैशन सा निकल पडा है, बडा बिजनेसमैन मतलब बडा चढावा। जैसे लगता है कि मुर्तियों को सोना से मढने सचमुच भगवान प्रसन्न होकर और ज्यादा धन देंगे। या फिर अपनी काली कमाई छुपाने के लिए भगवान को हिस्सेदार बनाया जाता है, ताकि पाप घुल जायें। दर्जनों अनाथ आश्रम है, वृध्दाश्रम है,जो राजनैतिक हो या फिर सामाजिक सहायता से वंचीत है। हम और आप भगवान के बीच में किसी माध्यम को ढूँढने के बजाए सीधे भगवान से ही अपनी कहानी कहें। भगवान के प्रति श्रध्दा जरूर रखीये, लेकिन चढावे के रूप में हो, या फिर चंदे के नाम पर दी जानेवाली रकम का अगर सही इस्तेमाल आप करे तो भगवान ही नही बल्की इंसान भी आशीर्वाद देगा। कहा भी जाता है कि कण-कण में भगवान बसते हैं तो क्यों ना हम हर इंसान में ही भगवान को देख कर उसे ही अपनी श्रद्धा व्यक्त करें। हम में तुम में खड्ग खंभ में सबमें व्यापत राम,, ये बात प्रह्लाद ने सैकडो बर्ष पहले कहा है तो क्यों ना भोले शंकर को हम अपने आस पास ही ढूँढे। हर हर महादेव के नारे का मतलब ही है कि हर खुशी चारो तरफ से जल की धारा की तरह बहे। गंगा की धारा की हर कोने कोने तक पहुँचे और तन मन पवित्र हो। ऊ नम: शिवाय, सत्यम् शिवम् सुन्दरम्,, निरंकार ब्रह्म हम में तुम में है तो भेद क्यो?

Friday, February 13, 2009

निठारी के नरपिशाच

निठारी कांड के नराधम पंढेर और कोली को सीबीआई कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाकर रिंपा हलदर के साथ साथ उन सभी मासूमों को न्याय दिलाया है, जो इन नरपिशाच के शिकार बने। मासूम बच्चों को हैवानियत का शिकार बनाया गया। उनके शरीर को नोच नोच कर खाया गया। शरीर के टुकडे-टुकडे कर उसे नाली में फेंका गया। निठारी जैसे शर्मनाक हादसे ने दिल दहलाकर रख दिया था। सीबीआई कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाकर इन पिशाचों को काफी आसान मौत दी है, इनके तो उसी प्रकार छोटे छोटे टुकडे कर के जानवरों और गिद्धों को खिला देना चाहिए जिस प्रकार इन्होने ने मासुम बच्चों के जिंदगी के साथ खिलवाड किया। उसी तरह से उनसे भी उनकी जिन्दगी छीन लेनी चाहिए। उम्मीद तो है कि कोई दूसरा ऐसे कांड करने से पहले दस बार सोचे, लेकिन हैवानियत हमेशा अच्छी सोच पर हावी होती है। बस भगवान से यही दुआ है कि , और कोइ पंढेर या कोली पैदा ना हो।

Monday, January 5, 2009

दे दिए सबूत

भारत के विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने पाक को उनके नापाक इरादो का कच्चा चिठ्ठा खोलनेवाले सबूत दे दिए है। पाक की ओर से उचीत कारवाई करने की बात भी कही गयी। पाक खुद को आतंकवाद का शिकार बताकर मगरमच्छ के आंसू बहा रहा है। आंतरराष्ट्रिय दबाव के चलते पाक में ही कारवाई करने की लीपापोती कर रहा है। कितने सबुत और चाहिए उन्हे, पीठ में खंजर घोंपने के। जेहाद के नाम पर मासुम बच्चों का जीवन नर्क बना रहे है। किसी भी धर्म में दुसरों की जान लेनेवाले को जन्नत या स्वर्ग नसीब नही होता। जन्नत मिलने का ख्वाब देकर मासुमों की जिंदगी को नर्क बनानेवालों को तडपा-तडपाकर मारना चाहिए ताकी धर्म के बीच नफरत फैलानेवालों की रूह भी काप उठे। पाक अब समझ जाये की छुपछुकर वार करना छोड दे। हमारे जाबांज शेरों के आगे शेखी बघारने वाले बिल्ली की तरह म्याव-म्याव भी नही कर पा रहे है। पायें। दिलेर भारतवासीयों की जीतनी भी मिसाले दें कम है। जहां आतंकीयों ने आतंक का नंगा नाच करके मासुम लोगों की जान ली, उनके साथ दुष्कर्म करके उन्हे मार डाला, आला अफसरों की जान ली, उसी शहीद हेमंत करकरे की बेटी ने कसाब को फांसी नही देने की बात कही। वो महज २१ साल का गुमराह नौजवान है। कोई भी भगवान बुरे कामों के बदले जन्नत नसीब करवाता नही , ये कहना है, उस जाबाज बेटी का जिसने अपने पिता को खोया है, पापा की लाडली बेटी थी वो।ये वो संस्कार है जो इंसान को नफरत से बांटता नही बल्की प्यार से लोगो को जोड रहा है। भारतीय सभ्यता, संसकृती और संयम दुनिया में सबसे बढकर है। धर्म के लिए जीना- मरना है,तो पहले इंसान बने.. पाक इरादों के साथ...