Friday, August 29, 2008

बिग बॉस और राजनेताओं की राजनीति

पिछले दो हप्तों से कलर्स चैनल पर आनेवाला बिग बॉस काफी चर्चा में है। वैसे कलाकारों की निजी जिंदगी के बारे में जानना कई लोगों को पसंद है। एन्टरटेनमेंट चैनल नही देखनेवाले लोगों को भी बिग बॉस के प्रतिस्पर्द्धियों के बारे में जानकारी रखनी लगे। बीग बॉस के घर रहनेवाले सभी चेहरे लगभग जाने पहचाने से है। राहुल महाजन, संभावना सेठ, पायल रोहतगी, बहुचर्चित और अंडरवर्ल्ड डॉन की सहेली मोनिका बेदी , हास्यकलाकार एहसान कुरेशी, गायक देबोजीत, केतकी दवे, इनके अलावा राजा के साथ लोग हैं जो चर्चित नही हैं। लेकिन एक हप्ते के लिए जानेमाने नेता संजय निरूपम भी बिग बॉस के मेहमान बने थे। उन्हे कलाकारों के बारे में जानना था। उनकी मानसिकता टटोलनी थी। न्यूज चैनलो की खबरों में रहनेवाले निरूपमजी को अब कलाकरों के बीच में रहकर अन्य अनजाने लोगों तक पहुँचना था। कलाकार और नेताओं के बीच आमतौर पर जान-पहचान होती है, लेकिन कलाकार खुद को राजनीति से दूर ही रखते है। मतदान करना उचित नही समझनेवाले कलाकारों की मानसिकता जानने के लिए निरूपमजी ने सोच-विचार करके बिग बॉस में हिस्सा लेने की ठान ली। हालांकि कलाकारों में जल्द ही मिक्स न होने की वजह से निरूपमजी को एक हप्ते में ही अपने घर लौटना पडा । फिर भी उन्हे लगता है की उन्होने कलाकारों की मानसिकता जान ली है। अपनी अलग थलग दुनिया में रहनेवाले कलाकारों को राजनीति की ओर आकर्षित करने का प्रयास नेताजी ने किया। वहीं दूसरी ओर आर.पी.आई. सासंद रामदास आठवले ने बिग बॉस के घर न्योता मिलने के बावजूद उन्हे नही लिये जाने पर बडी कडी नाराजगी जताई। हर न्यूज चैनल पर उन्होने आकर राजनीति का प्रचार करने की अपनी इच्छा अधूरी रहने की भी बात कही,सोचने लगे कि नहीं आने का ही प्रचार कर के खबर में रहा जाए सो लगे बिग बॉस को भला बूरा कहने।। दलित होने का खामीयाजा उन्हे भुगतना पडा इस बात से उनके कार्यकर्ता भी आक्रमक हो गये। चैनल के कार्यालय में तोडफोड की और अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी के पुतले भी फुंके गये । दोनो नेताओं की मानसिकता थी कि कलाकरों की सोच को बदला जाए और उनको नेताओं के दूसरे पहलू के बारे में अवगत कराया जाए। आखिर संसद में नोटों को लहराये जाने के बाद कहीं ना कहीं राजनेता मुँह छुपाते से लग रहे हैं। मनोरंजन की दुनिया में अपने आप को खो देने वाले कलाकारों की मानसिकता को टटोलने के बजाए आम आदमी के साथ इन दोनो नेताओं ने एक सप्ताह बिताया होता, उनकी मुश्किलों को जानने का प्रयास किया होता, उनके दुख दर्द नजदीक से जानकर उन्हे हल करने का प्रयास किया होता तो आम आदमी के नजरों मे उनका कद और भी बढ जाता। मिडीया के जरीए महज लोकप्रियता पाने का प्रयास दोनो ही नेताओं का विफल हो गया है। मिडीया में लोकप्रियता बढने की वजह से सभी लोग वोट नही देंते ,ये बात उन लोगों को गांठ बाँध लेनी चाहिए। वोट बटोरने के लिए लोगों के लिए कुछ ठोस काम करके उनके दिलो तक पहूंचना बेहद जरूरी है। नहीं तो आम लोगों की नजरों में नेता भी बन जाएंगे डमुरु तमाशा के साथ चलने वाले मनोरंजन का साधन।

मेंहदी- परंपरा से व्यवसाय तक

गणपति बाप्पा बस कुछ ही घंटों में अपने भक्तों से मिलने आरहे है, और भक्त भी बाप्पा के आगमन को लेकर काफी उत्साहित है। बाजार रंगबिरंगी सजावट की चीजों से खचाखच भरे पडे है। चारों और जगमगाती रोशनी मानों शरीर में उर्जा पैदा कर देती है। महज दस दिनो के इस त्योहार के लिए करोडो रूपयों के वारे न्यारे हो जाते है। बाप्पा के आगमन की तैयारियाँ जोरो शोरो से शुरू है, तो हमारा भी मन किया बाजार में घूमने का । मुंबई का दादर इलाका एक ऐसा बाजार है जहां कोई भी चीज वाजिब दाम में मिल जाती है। बाजार रंगबिरंगी सामान से भरे पडे है। घूमते घूमते अचानक मन में आया की आज हाथों में मेंहदी रचाई जाए । ढूंढते ढूंढते हम पहूंचे मेंहदी लगवानेवाले के पास , वो कह रहा था मुंबई में उनकी एक मात्र दुकान है मेंहदी लगाने की। तो लाजमी है की मेहनताना भी ज्यादा होगा। त्योहांरो के दिनो पर भरपूर कमाई कर रहे है। चार हप्ते सडक पर बैठकर मेंहदी लगानेवालों ने अभी मॉल में किराये की दुकान ली है। ऑफ सीजन में भारतीय पध्दती की मेंहदी रचवाने के लिए खूब पैसे देने पडते है दो हाथ के दो सौ रूपये, और अगर सस्ता चाहिए तो अरेबीक पध्दती की मेंहदी लगवाएं। नोएडा में हमें चप्पे चप्पे पर मेंहदी लगवाने मिल जाते थे और वो भी मामूली कीमत में। मुंबई में कामकाजी महिलाओं को मेंहदी लगवाने का शौक तो होता है लेकिन बैठकर घंटो मेंहदी रचाने के लिए वक्त नही होता। ब्युटी पार्लर में मेंहदी का खर्च बहुत ही ज्यादा होने की वजह से इस शौक को आम महिलाएं अपने दिल में ही दबा लेती है। मेरे खयाल से मेंहदी रचाने की कला जो भी महिला या लडकिया जानती हो उन्हे इस शौक को व्यवसाय के तौर पर अपनाना चाहिए । आम महिलाओं को सस्ती और खुबसुरत मेंहदी लगवायी जाए तो वो हमेशा ही अपने हाथों में मेंहदी रचाएंगी। आम महिला या लडकीयां अपने शौक पर खर्च करने से पहले दस बार सोचती है। गली और मुहल्लों में भी यह व्यवसाय अच्छी तरह से फल-फूल सकता है। मेंहदी रचाने का हूनर जानने वाली घरेलू महिलाएं भी आमदनी कर सकती है। इस व्यवसाय के जरिए रोजगार की तलाश करने वाली लडकियों को एक रोजगार का अच्छा साधन मिल सकता है, और दाम बाजीब होने से महिलाएं भी किसी त्योहार के इंतजार में नही रहेंगी। वाजीब दाम से आमदनी तो होगी ही साथ ही घरेलू महिलाओं के साथ साथ कामकाजी महिलाओं का शौक भी पूरा हो सकता है।

Wednesday, August 13, 2008

आम इंसान का चक्काजाम

अमरनाथ जमीन वापस लेने के मुद्दे पर विश्व हिंदु परिषद के कार्यकर्ताओं ने देशभर चक्काजाम किया। चक्काजाम करने का ऐलान एक दिन पहलेही कर दिया था। समय चुना सुबह नौ बजे से लेकर ग्यारह बजे का यानी पीक अवर्स का। सुबह के वक्त स्कुल, कॉलेज , ऑफिस जानेवाले या काम के लिए घरसे निकलने वालों को इसका खामियाजा भुगतना पडा। आम जनता सॉफ्ट टार्गेट बनती जा रही है। किसी भी चिज का विरोध करना हो तो बस आम जनता को ही हाशिये पर चढाया जाता है। नापसंद बातों का विरोध होना जायज है, लेकीन आम जनता को परेशान करना, पब्लीक ट्रान्सपोर्ट का नुकसान करना , गाडीयों को जलाना, रेल्वे पटरी उखाडना इन सब बातों से किस तरह का दबाब निर्माण करना चाहते है। मांग करना या नापसंद बातों का विरोध होना चाहिए लेकीन इस तरह के विरोध से नही । आम आदमी को ही हमेशा भुगतना पडता है, अंबाला में एक व्यक्ती को इलाज के अभाव में अपनी जान गवानी पडी। धर्म के लिए आस्था होना गलत बात नही लेकीन धर्म के नाम पर तबाही मचाना शर्मनाक बात है। विरोध का तरीका सही हो तो इस विरोध में आम आदमी भी जुड सकता है। बहोत तकलीफ होती है जब सार्वजनिक संपत्ती और जान माल का नुकसान होता है। इस नुकसान भरपाई की किमत भी आम इंसान के जेब से ही वसुली जाती है। परेशानी होती है सो अलग। राष्ट्रपिता महात्मा गांघी ने सत्याग्रह करके गोरों की हूकूमत को रौंधनेमें कामयाबी पायी थी, लेकीन हमारे देशवासीही अपने देशवायीयों का जीना मुश्कील कर रहे है, फिर चाहे वो किसी भी धर्म या जाती के ही क्यों न हो। हरबार आम इंसान को निशाना बनाकर सरकार को घेरने का इस तरह का प्रयास कामयाब होगें ?.

Tuesday, August 12, 2008

स्वागत या परेशानी

बरसों रे मेघा मेघा कहते कहते लोगों ने बारीश का जोरदार स्वागत किया । बारीश की आस में लोगों ने होम हवन तक किये थे । मेघा बरसा भी लेकीन, पानी के लिए तरसनेवाले कई लोगों के संसार भी उजाड दिये। हरसाल बारीश की राह में आसमान की तरफ टकटकी लगानेवाले किसान ने जब दोबारा बुआई की तो उसे यह नही पता था की उसकी फसल बारीश के चलते बह जाएगी। महाराष्ट्र के कई जिलो में तबाही का मंजर थाइ । कईयों के घर उजड गये तो कई लोगों को अपना घरद्वार छोडकर कहीं और डेरा डालना पडा। दरअसल दोष पकृती का नही बल्की हम इन्सानो का है। पकृती तो हमारी भुख, प्यास मिटाती है लेकीन हम इसांन ही पकृती के बनाये नियमों की धज्जीयां उडाते है। जंगल को तोडकर उसपर भी अपना एक फॉर्महाउस होने की प्रबल इच्छा इंसान ही रखता है। पानी के निकासी की व्यवस्था पर भी अतिक्रमण करके सारा दोष मढा जाता है प्रकृती पर। प्रकृती तो भर भरकर देती है, लेकीन उसका आस्वाद लेना सभीके बस की बात नही है। लेकीन कुछ पकृती प्रेमीयों को सालभर बारीश का इंतजार भी रहता है। प्रकृती से प्यार करनेवाले बहोत सारे लोग है, वे प्रकृती को बचाने के लिए हरसंभव प्रयास करते है, लेकीन सभी लोगो का साथ होना जरूरी है। तभी बारीश की फुहारों से तम मन प्रफुल्लीत हो जाएगा। बारीश के आने से परेशानी नही बल्की सभी लोग स्वागत ही करेंगे

Friday, August 8, 2008

आत्महत्या का बढता दौर....

बुधवार को 8 लोंगों की आत्महत्या की खबर सभी न्यूज चैनलों की सुर्खियाँ बन गयी थी। एक ही परिवार के 5 लोगों ने खुदकुशी की और वहीं दूसरी ओर एक माँ ने अपने बच्चे को जहर देकर खुद फाँसी का फंदा लगा लिया, हृदय की पीडा देखिये कि पति को खुश रहने की चिट्ठी भी छोड़ गयी। इतना बडा कदम उठाने के लिए सचमुच हालात भी वैसे होंगे, कोई रास्ता सामने दिखाई नहीं पडता होगा।मंगलवार को मुम्बई में ही एक महिला ससुरालवालों के जरिये दिये जा रहे दुख को झेल नहीं पायी और रास्ता चूना खुदकुशी का। पिछले चार पाँच सालों में खुदकुशी करना एक आम सी बात हो गयी है। महाराष्ट्र के विदर्भ में किसानों के खुदकुशी का सिलसिला आज भी जारी है। खुदकुशी करना इतना आसान भी नहीं हो सकता, बच्चों को पहले मारकर फिर अपने आप को खत्म करने के लिए कलेजा कैसे तैयार होता होगा। खुद के गुजरजाने के बाद बच्चे दर-दर की ठोकरें ना खाये शायद यह अहसास उनको पूरे कूनबे को ही खत्म करने पर मजबूर करता होगा। यह बात सोलहो आने सच है कि जब माँ बाप ही नहीं रहेंगे तो इन मासूम बच्चों का सहारा कौन बनेगा, अगर ईश्वर मेहरबान हुआ,कोई बना भी तो ये अच्छी परवरिश और प्यार से हमेशा ही महरूम रहेंगे। इन सब बातों को सुनकर और देखकर समाज से घृणा होती है।संसद में नोटों के बंडल उछालकर खरीद फ़रोख्त करनेवाले सांसद क्यों नहीं इस पैसे का उपयोग गरीबी हटाने में करते ? क्यों अमीर गरीबों का खून चूसकर और अमीर बनते जा रहे हैं, और गरीब गरीबी की खाई में फँसता ही जा रहा है। दहेज और घरेलू जुल्म के नाम पर महिलाओं के प्रति बढ रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाने का काम सिर्फ सामाजिक संगठनों का ही है, स्थानीय नेता तो केवल वोट की रोटी सेकने का अवसर देखते हैं। आत्महत्या करने के लिए उकसाना या उस तरह के हालात कौन पैदा कर रहा है, परिवार के लोग और समाज में रहनेवाले दानव ही तो। इनके खिलाफ सख्त कार्यवाही करने के लिए सरकार भी साक्ष्यों की दुहाई देती है। कोई भी सख्त कदम नहीं उठते।पिछले कई सालों से आत्महत्याओं का दौर बढता जा रहा है, इसके पीछे कारण बन रहा है कि इन्सान के हालात जिससे हार कर वह दिन-ब-दिन कमजोर होता जा रहा है।उसके आस पास हालात ऐसे पैदा किए जा रहे हैं कि कितना भी वो हिम्मती हो उसके हिम्मत को टूटने में देर नहीं लगती। शायद अब यही जिम्मेदारी अब हमें और आपको लेनी होगी। अपने आसपास या जाननेवालों में कोई भी ऐसी मानसिक दौर से गुजरता हो तो, कुछ ज्यादा नहीं तो लेकिन उनकी टूटती हिम्मत को तो कम से कम बँधाये। कुछ और नहीं तो उनके दर्द को बाँटने का प्रयास करे यही उस निराश से घिरे मानव के लिए काफी है। अगर आप और हम किसी एक भी व्यक्ति के हौसला आफजाई करने में कामयाब हो जाते हैं उसे निराशा के अँधेरे से निकालने में कामयाब हो जाएँगे,तो यह प्रयास सफल होगा। हमारा एक मदद का हाथ किसी भरेपूरे परिवार को बिखरने और तबाह होने से बचा सकता है।

Wednesday, August 6, 2008

मित्रता दिवस की धूम

अगस्त महीने का पहला रविवार यानी फ्रेन्डशिप डे। हालिया कुछ सालो में मित्रता दिवस मनाने का ट्रेंड भारत में भी आया है। कई लोग इसे रविवार को मनाते है, तो स्कूल और कॉलेज में सोमवार को। फ्रेन्डशिप डे का आगाज हालिया कुछ दिनो में एक हप्ते पहले ही जान पडता है। रंगबिरंगी फ्रेन्डशिप रिबन और गिफ्ट सजाकर दुकानदार मोटी कमाई भी कर लेते है। कई लोगों का फ्रेन्डशिप डे को विरोध है, लेकिन मेरा नही। विरोध करने से पहले उसके पीछे के तथ्य , भावना को समझना बेहद जरूरी है। मित्रता दिवस सिर्फ युवाओं का नही बल्की पारिवारिक भी है। मां-बेटा, पिता-पुत्री, भाई-बहन सब एक दुसरे के मित्र है। रविवार को सुबह सुबह मेरे सारे मित्रों ने मुझे मित्रता दिवस का संदेशा भेजा, मैने भी जगते ही सबको तुरंत रिप्लाई भी कर दिया। मां ने भी मुझे बधाई देते हुए कहा , मै भी तुझे फ्रेन्डशिप बैंन्ड बांधूंगी। आखीरकार मां मेरी सबसे पहले और अच्छी दोस्त है। कॉलेज में हम भी एक दूसरे को रंबगिरंगी रिबन बांधकर अपनी मित्रता दिवस की बधाईयां देते थे। कॉलेज के दिन हसते खेलते बीत गये लेकीन अब स्पर्धा के इस दौर में मित्रों की खरी परिक्षा होती है। रविवार का पूरा दिन मैसेज संदेशा लिखने और पढने में बीत गया । फिर भी आंखे प्यारे से मित्र के संदेशा की बाट जोह रही थी। एक ऐसा मित्र जो रोजाना गप शप नही करता , मिलता भी नही, लेकिन जब भी मन उदास हो वो हमेशा बाते करके मन हल्का कर देता है। करियर की शुरूआत में उसने मेरी काफी हौसला अफजाई कीहै, हिम्मत बंधाई है। एक तरह से मुझे तैयार करने में उसकी अहम भूमिका है। सिर्फ अच्छी अच्छी बातें नही बल्कि वास्तविकता का एहसास दिलाया है। हम एक दूसरे से झगडते भी है, बहस भी करते है। उस मित्र ने आखीर में रात को फोन किया तो मै तुरंत उसपर बरस पडी और कहा कि सारे लोगो के मैसेज आया बस तुम्हारा ही मैसेज नही आया। उसने कहा दोस्त हमारी दोस्ती सिर्फ एक दिन के लिए नही है। मै रोज भगवान से प्रार्थना करता हूं की मेरे दोस्त को हमेशा खुश रखना, और सात जन्मो तक मुझे यही दोस्त देना। इस बात को सुनकर मेरी आंख भर आयी, गुस्सा तो उडन छू होना ही था। सचमुच मै काफी भाग्यवान हूं की मित्रों की ढेर में मेरे पास एक तो सच्चा मित्र है। कहते है खुशी में तो सब आपका साथ देते है, लेकीन गम बाटने के लिए एक तो सच्चा मित्र आपके पास होना चाहिए, और वो मेरे पास है........

Friday, August 1, 2008

बदलती मानसिकता.

नागपूर में १ अगस्त को 10 वर्षीय ने फांसी लगाकर खुदखुशी की। वजह उसे ज्यादा देर तक कार्टून देखने के लिये उसके चाचा ने मना किया। कमलेश ने कमरे में जाकर अंदर से मौत को गले लगाया। घटना को सुनकर उसकी लाश को देखकर दिल दहला गया। आजकल बच्चो की मानसिकता बदलती जा रही है। पढाई का बोझ, फिर ट्यूशन, पेंटीग क्लासेस, डान्सिंग क्लासेस का प्रेशर। बच्चे तो आजकल खेलना कुदना ही भूल गये है। टीवी, गेम शो, इंटरनेट, मोबाईल जैसी चीजों ने बच्चो को समय से पहले ही मैच्यूअर बना दिया है। आमिर खान की फिल्म तारें जमीं पर देखी, फिल्म दिल को छू गयी थी। अब यह जिम्मेदारी पूरी तरह अभिभावको की है,कि मिट्टी के कच्चे घडे को कैसा आकार देना है। अब है को डाट डपटकर नही बल्कि उनके मित्र बनकर बातें समझनी होगी, और अच्छी बातें समझानी भी होगी। अचानक बच्चे चिडचिडे नही बनते, उसके पिछे छिपे कई कारणों को अभिभावक कों खुद ही खोजना होगा। उनके साथ समय बिताना होगा। शहरों में मां और पिता दोनो के नौकरीपेशा होने की वजह से बच्चों की तरफ ना चाहते हुए भी अनदेखी हो जाती है। कच्ची उम्र में बच्चों को सही दिशा देना बहुत जरूरी होता है। खेल,कुद, सेहत, पढाई इन सब बातों पर अगर अभिभावक समय रहते ही ध्यान न दे तो बच्चे के शारीरीक और मानसिक बदलाव के दौरान कई परेशानियां आ सकती है। चाहे आप बच्चों को उचित समय ना दे पायें लेकिन इतना जरूर ध्यान में रखना चाहिए कि बच्चों को ढेर सारा प्यार दे, उनकी जरूरतों को समझे, उन्हे प्यार से समझाये, उनके साथ मित्रता रखें। मैत्री और प्यार का भाव दुराव नष्ट करके परिवार को आपस में जोडता ही है।