Thursday, June 26, 2008

सावन आयो रे...

आज सुबह सुबह ऑफिस जाने के लिए हमेशा की तरह निकल पडी, रात भर गर्मी की वजह से फ्रेशनेस बिल्कुल नही थी, मारे गरमी के गुस्सा, चिडचिडपना सीमाएं लांघ रही थी। जबसे गरमी का मौसम शुरू हुआ है रोज बस यही हाल होता है। बस में बैठने के बाद एहसास हुआ कि आज तो बादल घिर आए है, कहीं न कही तो बारीश की बौछारे जरूर गिरी होंगी, जैसे तैसे स्टेशन पहुंची, ट्रेन में प्रवेश भी कर लिया । सुबह सुबह आमतौर पर महिलाए थोडासा कम ही बातें करती है। कई सारी महिलाएं झपकियां ले रही थी,कोई पढ रही थी तो कोई बाहर का नजारा देखने में मशगुल थी। मेरे सामने के बेंच पर एक छात्रा और एक महिला झपकिया ले रही थी। आज थोडी गरमी कम होने का एहसास हुआ तभी खिडकी से बारीश की एक बुंद ने चेहरे को छुआ। बाहर झांक कर देखा तो हल्की सी बूदा बांदी हो रही थी । मन प्रफुल्लीत हो उठा, मेरे सामने झपकियां लेने वाली छात्रा मन ही मन मुस्कुराने लगी, महिला ने मेरी और देखकर एक स्मित हास्य किया । बारीश की कुछ बूदों ने सारे तनाव को उडन छू कर दिया। और आंखो के सामने ऐश्वर्या डोलने लगी... बरसो रे मेघा मेघा.... और मुड हो गया एकदम फ्रेश....

राजनीति वडापाव की

'वडापाव' मुंबईकरों की पहली पसंद. मुंबईमें आनेवाला कोई भी इंसान कभी भुखो नही रह सकता. गरीब हो या अमिर वडापाव खाने की चाहत सभी को होती है. लेकीन अब इस वडापाव के भाग्य बदलने जा रहे वडापाव की राजनीती इतनी गरमाती जा रही है की इसका नामकरण अब हमारे शिवाजी महाराज के नाम से किये जाने की घोषणा की गयी है। अगर वडापाव का नाम 'शिववडा' हो जाये तो आम लोग कैसे खायेंगे. पहले तो गरीब तबकेसे आनेवाले कई लोग इसे खरीदनेसे कतरायेंगें क्योंकी फिर एकबार राजनीती की चक्कीमें वे कतई पिसना नही चाहेंगे. शिववडा मांगा और फिर एक बार मराठी अस्मिता का मुद्दा बन गया तो लेने के देने पड जायेंगे.अब गरीबों के मुंह का खाना छिनने से भी यह राजनितीज्ञ कतरा नही रहे है. मुगल साम्राज्य को खदेडकर हिंदवी स्वराज्य का निर्माण करनेवाले महापुरूष का नाम वडापाव बनने जाएगा इससे बडी शर्मनाक बात कोई दुसरी हो ही नही सकती. राजनितीज्ञ इतनी हदतक गिरे जा रहे की उनको पता भी नही चल पा रहा है की लोगों की भावनाओं से खेलकर वे कतई कामयाब नही हो पायेंगे.चाहे वो लोगों की भलाई के लिए किया गया दिखावाही क्यों न हो.वडापाव मुंबईकरों का खाना है और उसे महज खाना ही रहा दिया जाए तो बेहतर होगा. आम मुंबईकरों को मेहनत करने के बाद दो निवाला सुकून का चाहिए नाकि राजनिती के खेल का मोहरा बनना."अन्नपूर्णा ही सबकी इच्छा पूरी कर सकती हैं।"

कपडो का अलग अंदाज

कपडे हम सभी पहनते है. सभी को अच्छा लगता है अलग अलग पहनावा करना.जिस तरह फॅशन की डिमांड हो उस तरह का पहराव करना कईयों को भाता भी है.पहराव करना अलग बात है लेकिन आजकल हम रास्ते पर चलते है तो सडक पर लगे बैनर , पार्टीयों के झंडे, लंबे से लंबे होर्डींग्ज का भरमार लगी होती है जिसे बनाने के लिए पार्टी लाखो रूपये खर्च कर रही है .अपने अपने पार्टीयों का झंडा बुलंद करने के लिए कपडो का भरमार रास्तों पर लगा दे रही है, क्या इसे झंडे और बॅनर के जरीए शक्तीप्रदर्शन नहीं कहा जा सकता है, आम इंसान को इसके बारे में शायद पता नही होगा, उसे इससे क्या लेना देना होगा. बस कपडे पर लिखे अक्षरों को पढना या देखकर आगे बढना यही उसकी आदत बन गयी है. झंडो और पार्टी की प्रसिद्धि के लिए कपडे का गलत इस्तेमाल करना कहाँ तक उचित होगा, जबकि कई ऐसे लोग है जिनको तन ढकने के लिए भी कपडे नसीब नही होते.क्या राजनितीक पार्टीयों के प्रमुखों को इस बारे में विचार नहीं करना चाहिए. वे इसे उचित नहां समझते . अपने शक्तीप्रदर्शन करने की होड में लगी राजनितीक पार्टीयां शहर की खूबूसूरती तो बिगाड ही रही है लेकीन अपने कर्तव्य के प्रति भी जागरूक नही है, मै भी आम इंसान की तरह इन कपडों की हो रही बर्बादी को चुपचाप देख रही हूं आप ही की तरह.

Wednesday, June 25, 2008

संवेदनाहीन मुम्बईकर

मुलुंड में एक छात्र का सडक पर एक्सीडेंट हो गया । सही वक्त पर मदत नही मिलने से इंजीनियरींग पढनेवाले छात्र को अपनी जान से हाथ धोना पडा। पादचारी को बचाने के प्रयास में महज 20 साल का वो युवक 45 मिनिट खून में लथपथ मौत से जुझता रहा, लेकिन आखिर जीत हुई मौत की ही । उस युवक को मदत करने के लिए एक इन्सानियत जागी भी लेकिन जरूरत थी और हाथों की मदत की। संवेदनाहीन मुंबईकरों ने अपनी व्यस्तता का झुठा नकाब नही उतारा, किसी भी पिता,मां भाई या बहन का दिल नही पसीजा उस युकक को जीवनदान देने के लिए। कोई गाडी नही रूकी उसकी बंद होती सांसो को बचाए रखने के लिए । हां तमाशबिनों को वक्त तो जरूर मिला लेकिन सिर्फ तमाशा देखने के लिए। जीवनदाता के रूप में कोई हाथ आगे नही बढा। कुछ दिन पहले ऐसेही एक वाकया सामने आया था जब फर्स्ट क्लास के एक कम्पार्टमेंट में खून में लथपथ एक महिला निर्वस्त्र बेहोश पडी थी। ट्रेन सीएसीटी से लेकर कल्याण पहूंची और फिर कल्याण से सीएसटी लेकिन महिला निर्वस्त्र स्थिती में ही थी। किसी महिला ने उसपर एक कपडे का टूकडा डालने की जहमत नही उठाई पुलिस को इत्तला भी की गयी लेकिन उनकी भी संवेदनाएं नही जागी क्योंकी उनके पास महिला सिपाही नही थी। शराब पिकर रईसजादे गरीब मजदुरों को अपनी गाडीयों से कुचलते ही जा रहे है और पैसे की शय पर आजाद घुम रहे है। मासुमों पर बलात्कार करनेवाले वहशी दरिंदे अपनी हवस की भुख मिटाने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाकर अपना शिकार ढूंढते रहे है। प्रेम जैसे पवित्र भावना से खिलवाड करनेवाले प्रेमियों की भी कमी नही, जिस प्यार के लिए जीने मरने की कसमें खाते है उसी प्यार पर वार करने से नही चुंकते ।क्या सचमुच मुंबईकर संवेदनाहीन बन गये है। पैसा और एहम इन्सानियत पर हावी हो रहा है। या इन्सान अपने आपको परिपुर्ण समझने की भुल कर बैठा है। उसे क्यों ऐसा लगता है की उसे कभीभी किसी प्रकार के मदत की आवश्यकता नही पडेगी। अगर जिंदादिल शहर दिलों को जीते जी ही मरने पर मजबूर कर रहा हो तो मुंबईवासी इस बात पर जरूर सोचिए की आप अमिर हो या गरीब जागिए,अंतरआत्मा को झंझोडिए क्योंकी ऐसा ना हो की कल आपका हाथ मदत मांगे और आपके हाथ निराशा लगे........