
Thursday, December 24, 2009
बूझ गया चिराग.. डूब गया घर का सूरज ...

निर्दयी प्यार......

दो दिन , और दो घटनाएं जीने मरने की कस्में खाना , हर सुख दु:ख में साथ निभाने का वायदे हर प्रेमी- प्रेमिका करते है। प्रेमी की एक झलक पाते ही भूख प्यास सब कुछ मिट जाती है। प्यार करनेवालों की अपनी एक अलग ही दुनिया होती है। किसी की भी परवाह नही, कभी कभी तो समाज से बगावत करने में भी ये हिचकिचाते नही, अपने ही दुनिया में मस्त रहते है, हमेशा ही एक घरौदा बिनते रहते हैं। प्यार में सराबोर प्रेमियों को हर तरफ प्यार ही प्यार नजर आता है। लेकिन यह प्यार जब विश्वासघात में बदल जाए तो रूंह काप उठती है। सात जन्मों तक साथ निभाने की कस्में खाकर अग्नि के सात फेरे लेनेवाले दो प्रेमियों ने पति बनने के बाद छह महीने के भीतर ही अपना राक्षसी रूप दिखा दिया। अपनी पत्नि को घूमने ले जाने के बहाने उन्हे पहाडियों से धकेलकर उन्हे जान से मारने की कोशिश की। हालांकि दोनो पति अपने गंदे मनसूबे में नाकाम रहे। पहली घटना है महाराष्ट्र के पुणे की जहां 20 दिसंबर को पति ने अपने पत्नी को गहरे पानी में धक्का दे दिया। दूसरी घटना है, महाराष्ट्र के महाबलेश्वर की जहां 21 दिसंबर को पति अपनी पत्नि को लेकर पहाडियों के खूबसूरती का नजारा दिखाने ले गया। पति ने अपने राक्षसी रुप दिखाते हुए पत्नी का गला दबाया, जिसके चलते वो बेहोश हो गयी। पत्नी को मरा समझकर उसे उंचाईयों से धक्का दिया। होश आने पर अंधेरे में जंगल और झाडियों से 8 किलोमीटर का रास्ता उस असहाय महिला ने तय किया। रात में गावंवालो से पनाह ली, और अपने माता पिता से संपर्क साधा। पत्नी को धक्का देकर पति तो फरार हो गया लेकिन कानून के लंबे हाथ से बचकर जाता कहां। दोनो बेवफा पति, पत्नियों के शिकायत के बाद सजा काट रहे है। उन्हे कडी से कडी सजा मिलनी चाहिए ताकि इस वाकये को कोई और दोहरा ना सके। प्यार के झांसे में आकर आजतक कई लडकियां बर्बाद हो चुकी है, उसमें से कई एकतरफा प्यार की शिकार हुई हैं। लडकियां, महिलाएं आए दिन पुरूषों के अत्याचार की शिकार बन चुकी है। नाबालिग लडकियों पर बलात्कार के कई मामले सामने आये है, चाहे वो शहर हो या फिर गांव। नारी शहरी हो या ग्रामीण हवस का शिकार बन ही जाती है। महाराष्ट्र के भंडारा जिलें में नयी नवेली दुल्हन को अपने जीवन की पहली रात ससुर के साथ बितानी पडती है, .यह वहां का रिवाज है। कोई भी लडकी इस बात के लिए कतई –तैयार नही होगी। सिक्के का दूसरा पहलू भी है। कई ऐसे परिवार है जिन्होने प्यार का साथ दिया है। कईयों ने प्यार के लिए मौत को भी गले लगा लिया। यह सच है की आए दिन महिलाओं पर हो रहे अत्याचार का ग्राफ बढता ही जा रहा है। अगर पति- पत्नि में अनबन हो या परिवार में खटास हो तो मामले को मिल –बैठकर सुलझाया जा सकता है या फिर ना सुलझे तो अलग होकर अपनी अपनी जिंदगी खुशी से बिताये। किसी को जिंदगी नही दे सकते तो उसे छीनने का भी किसी को कोई अधिकार नही। कहते है प्यार बांटने से बढता है, लेकिन इन सब घटनाओं को देखकर प्यार के नाम से डर लगने लगा है। आज की महिला और पुरूष दोनो सजग है लेकिन कहते है ना की प्यार अंधा होता है, सजगता की आखों पर भी पट्टी बंध जाती है। समाज, और परिवार में कटुता आ ही जाती है। प्यार किया नही जाता, हो जाता है, दिल दिया नही जाता खो जाता है। यह बात सोलह आने सच तो है लेकिन अगर किसी से प्यार हो जाए तो उसे इमानदारी से निभाये। अंतर आत्मा की आवाज सुने। धोखा देना बडा आसान होता है, लेकिन घोखा देनेवाला सबसे बडा भिखारी होता है...प्यार सिर्फ जीवन में एक बार ही होता है। क्योकि कसमें तो उसने भी खायी ही होगी और जीवन भर वो उस प्यार की तलाशने करता रहेगा ......
Monday, December 21, 2009
भगवान अब तो मौत दे दो....

अरूणा शानबाग.... 61 वर्षीय महिला.. जो पहले सबों का ख्याल रखने में कोई कसर नहीं छोडती थी। आज ना ही देख सकती है, न सुन सकती है और ना ही महसूस कर सकती है। कौन अपना कौन पराया उसे कुछ भी पता नही। आज अरूणा जिंदा लाश में बदल गयी है जो दवाईयों की बैसाखियों के सहारे जीवन व्यतीत करने पर मजबूर है। हां उसे मजबूर ही कहेंगे क्योकि पिछले 36 साल से वो कोमा में है, हाथ-पैर टेढे हो चुके है, दिमाग बंद है, संवेदनाएँ कुछ भी नही। कौन खाना खिला रहा है, कौन उसे स्नान करा रहा है ,किसी बात का उसे इल्म नही। 36 साल पहले अरूणा हैवानियत की शिकार हुई। शिकार भी ऐसे की सीधे वो कोमा में चली गयी। अरुणा को हैवानियत का शिकार बनाया उसी अस्पताल के कर्मचारी ने । उसने अरूणा को मरने के लिए छोड दिया है। अरुणा को देख कर हर किसी किसीका दिल पसीज उठता है। अरूणा के वकील ने उसके मृत्यु की याचना की है, सुप्रीम कोर्ट में। उनके साथ हुए कुकर्म का उन्हे इंसाफ तो नही मिला, लेकिन जिंदा लाश ढोना अब मुमकिन नही। अरुणा की कहानी सुनकर और हालत देखकर कलेजा कांप उठा उठता है। कोर्ट से यही निवेदन है कि उन्हे इज्जत की मौत बख्श दे। खत्म कर दे उनकी शारीरिक पीडा को। जीवन के 36 साल से शारीरिक और मानसिक पीडा से बेहाल अरूणा की देखभाल मुंबई के के.ई.एम अस्पताल की नर्सें और कर्मचारी कर रहे है। अरूणा का बस यही परिवार है, जो कि खून के रिश्ते से बढकर। खून के रिश्तेदार भी तिमारदारी करने में हिचकिचाते है, लेकिन अस्पताल कर्मी नही। उनको तो सलाम है, लेकिन आज भगवान के अस्तित्व पर शंका हो रही है। भगवान को माननेवालों में से मैं जरूर हूं, लेकिन आज इस दर्द को देखकर लग रहा है कि भगवान है ही नही, होते तो इतने निष्ठुर नही होते। सरकार से निवेदन है कि कानून में कुछ प्रावधान करें ऐसे मार्मिक मामलों की तह में जाकर के पीडितों के दु:खों को दूर करे। उस फाईल को खोलकर उस वहशी दरींदे को मृत्यूदंड की सजा सुनाये जिसने एक नाजूक सी जिंदगी को बर्बाद कर दिया।
Tuesday, December 15, 2009
इन्सानियत भी मर चुकी…........

आतंक का हमला वो भी संसद पर इसके आठ साल बीत गये। इस आतंक का खूनी खेल खेलने वाले दोषीयों को सजा देना तो दूर की बात लेकिन अपनों को श्रध्दांजलि देने के लिए भी सासंदो ने पीठ ही दिखाई। इन शहीदों की शहादता का ये बदला क्या लेगें अपनी ही लाज छुपाने के लिए घरों में दुबके रहे। सुरक्षा कर्मियों ने अपनी जान की बाजी लगाकर संसद पर हमले करनेवालों की खबर ली लेकिन उनके लिए दो पखुंडियां फुलों की श्रध्दांजलि देने के लिए भी नेताओं को फुरसत नही मिली। नेताओं के लिए संडे यानी फन डे, मौज मस्ती का दिन। एसी कमरों में रहकर के ये कामकाज से थक गये हैं सो सूकून पाना इनके लिए थायद सबसे जरुरी था। रीलैक्स होने के लिए किसी ने मना नहीं किया था बस जरूरत थी इन वीरों के लिए थोडी सी अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करने के लिए भी। सिर्फ कुछ समय निकालकर अगर शहादत की लाज रखते तो लोगों की नजरों में उनका सम्मान और बढ जाता। शहीदों के परिजन अभीतक मुआवजे से महरुम हैं, वहीं दूसरी ओर उन शहीदों के परिजनों का मजाक बनाकर रखा गया है। सांसदो ने अपने जान की रखवाली का शुक्रिया अदा करना तो दूर की बात आगे चलकर यह सरेआम कहने में भी नही हिचकिचाएंगे की सुरक्षा कर्मी तो होते ही है देश की सुरक्षा के लिए, और शहादत के बाद उनके परिजनों को मुआवजा भी मिलता है।
26/11 के हमले के बाद रतन टाटा ने ताज में मारे गये लोगों के परिजनों और जख्मियों को घर पर रखकर सैलरी दी, उनके बच्चों के पढाई का खर्च भी उठा रहे हैं। और भी बहुत कुछ कर रहे है। जिसका उन्होने प्रदर्शन भी नहीं किया है। ये बात अलग है कि उनके पास पैसा है लेकिन इतना भी नहीं कि सरकार से ज्यादा जिसे हम और आप अपना मालिक ही समझते हैं। लेकिन इन्सानियत को देखते हुए इन पीडितों से रतन टाटा मिले और पीडितों का ढांढस भी बंधाया। नेताओं को अपने जेब से मुआवजा या मदत नही देनी थी,वो लोगों का ही पैसा होता है। सीमा पर लडनेवाले, देश पर शहीद होने वाले, देश के लिए मर मिटनेवाले लोगों की कद्र नही होगी तो आगे चलकर कोई मां, कोई पत्नी , कोई पिता या भाई अपने बेटे या बेटी को देश के हवाले करने से पहले सौ बार जरूर सोचेगा। देश प्रेम तो जरूर होगा लेकिन सरकारी उपेक्षा उसपर हावी रहेगी जिससे पूरा परिवार जीते जी रोज रोज मरता रहेगा।
Monday, December 14, 2009
पा ने पा ली दिल की राह

कल मैने भी पा देखी, सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के जरिये साकार किए ऑरो के किरदार को मेरा सलाम। उनके अभिनय में शायद ही कोई ऐसी जगह हो जहाँ खामियां निकाली जा सके। ऑरो का किरदार निभाने में उन्होने इस उम्र में जो मेहनत की है, उसके लिए शब्द ही नही है, हालांकि अमित जी इस भूमिका को महज भूमिका मानते है। उन्हे लगता नही कि उन्होने कोई अदभूत काम किया है। उनके अभिनय, और सहनशीलता को लाखों बार नमन कर सकते हैं। बढती उम्र में कलाकार पिता, दादा या नानाजी का किरदार निभाते है लेकिन अमिताभ बच्चन मेरी नजरों में अमिताभ बच्चन जी बन गये हैं। ऑरो के किरदार के लिए घंटो मेक-अप करके आवाज में बदलाव लाकर अपने नाते पोतीयों के रहन- सहन, चाल- ढाल को देखकर ऑरो को सौ प्रतिशत न्याय दिलाया है। प्रोजेरिया से पीडित बच्चे तो हमारे देश में है लेकिन “पा” के जरिए उनकी पीडा के बारे में जानने का मौका मिला है। इस बिमारी से पीडित बच्चे बुजुर्गों के तरह दिखते है, साथ ही लोगों के मजाक का विषय भी बनते हैं। ऑरो के किरदार ने छत्तीसगड में पल रहे दो जुडवा बच्चों पर रोशनी डाली है। उनके पालन पोशन के लिए उनके माता –पिता को किस तरह की परेशानी आ रही है इसका पता भी चल गया। उनकी परेशानी और दुख दर्द को देखकर मन बडा ही आहत हुआ। लेकिन ऑरो और इन बच्चों में काफी असामानताएं है। दिखने में ये बच्चे उम्रदराज लगते हो, लेकिन ऑरो से काफी अलग। ऑरो स्कूल जाता है, उसके दोस्त, प्रीसींपल, टीचर सभी उसके सेहत का ख्याल रखते हैं, और तो और उसकी मां एक डॉक्टर है जो उसकी सेहत का हर पल खयाल रखती है। ऑरो को सारी सुविधांए है, पढाई के लिए कॉम्प्युटर, खेलने के लिए गेम ।वावजूद इसके ऑरो 13 साल के उम्र में ही चल बसता है। इस बिमारी और उसके पीडा के बारें में जानने को मिला। उसके लाईइलाज होने की जानकारी भी मिली। लेकिन गरीब घर में पैदा होनेवाले कई ऑरो को ना तो डॉक्टरी सुविधा मिल पाती है ना ही स्कूल जाना नसीब होता है। प्रोजेरिया पर आनेवाले कुछ सालों में इलाज निकलने की संभावना तो है, लेकिन उसका खर्च करना आम आदमी के लिए नामुमकिन। स्थानीय प्रशासन को इन बच्चों के इलाज का खर्चा उठाकर उन्हे कुछ ही दिन के लिए सही लेकिन जीने की उम्मीद दिलानी चाहिए, जीवन में भरपूर खुशियाँ बिखेर देनी चाहिए।
आत्महत्या की वजह शराब या बरसात का पानी

हमारे राजस्व मंत्री नारायण राणे कहते है कि महाराष्ट्र में विदर्भ के 6 जिलों में शराबबंदी कराई जाए ताकि वहां के किसानों को आत्महत्या से बचाया जा सके। मंत्री जी के मुताबिक किसानों की आत्महत्या का कारण है शराब। शराब की बातें कह कर मंत्री जी ने किसानों के मुंह पर सरासर तमाचा जड दिया है। उनकी गरीबी, मुफलिसी और लाचारी का खुल कर मजाक उडाया मंत्री जी ने। शराब सिर्फ महाराष्ट्र के 6 जिलों के किसान ही नही बल्कि देशभर में कई लोग पीते हैं। शराब कुछ हद तक बर्बादी का कारण हो सकती है, लेकिन जहां बरखा रानी ही अपना मुंह मोड ले वहां किसान अपनी फसल के लिए कहां से पानी लाए। गनीमत है कि महाराष्ट्र में फसल बरबाद हो जाते हैं तो काजू और अंगूर के सहार किसान कुछ कमा लेते हैं जिससे उनके खाने का जुगाड भर होकर के रह जाता है। महाराष्ट्र के अन्य जिलों के मुकाबले विदर्भ का किसान ज्यादा परेशान है। मुफलिसी तो जैसे उनकी किस्मत ही बन गयी है जिससे साफ लगता है कि, इन गरीब किसानों से इस जीवन में तो यह साथ छोडने से रही अगले जन्म के लिए भी शायद ही छोडे। विदर्भ के भंडारा में इस साल दोबारा हुई बरसात ने किसानों की उम्मीद जगाई लेकिन धान का बीज डालने के बावजूद भी फसल नही आयी क्योंकि बीजों की किस्म ही खराब बल्कि नकली थे। किसान इतना आहत हुआ कि अपनी मेहनत से उगाई गई फसल में ही आग लगा दी। जबकि उसको पता था की खेत जलाने का मुआवजा उसे मिलनेवाला नही। मंत्रीयों के भी खेत खलिहान है, वहां चौबीसों घंटा पानी मिलता है। फसल लहलहाती रहती है। फसल के दाम भी अच्छे खासे मिलते है। मंत्रीयों के शक्कर के कारखानों का बिजली बिल का बकाया लाखों रूपये है। वहीं दूसरी ओर विदर्भ में कुछ समय के लिए भी बिजली नसीब है। पानी है, तो बिजली नही और बिजली है तो पानी नही। नकली बीज,नकली खाद। फसल की बर्बादी के बाद सब कुछ गिरवी रखने के बाद भी दो वक्त की रोटी नसीब नही। विलासराव देशमुख ने भी एक बार कहा था की कपास की पैदावार करनेवाले किसान कपास बेचते वक्त उसमें पानी और पत्थर मिलाते है। किसानों की आत्महत्या अब इतनी सस्ती हो चुकी है की प्रधानमंत्री द्वारा आनन फानन में पैकेज जारी करने के बाद भी कईयों तक अभीभी मदत की राशि पहुँच नही पायी है। किसानों की आत्महत्या बहुत ही सस्ती हो चुकी है, क्यों की आश्वासनों का पुलिंदा देकर जीत कर आनेवाले नेता चाहे वो सरकार में बैठे हो या विपक्ष में उनसे पूछने वाला कोई नही। खून पसीने से मिट्टी से सोना उगानेवाला किसान मिट्टी में मिल जाए इन खद्दरधारियों को कोई फर्क नहीं पडता। मौत सस्ती हो गयी है, नेताओं की मौज पर कोई रोक नहीं ये जरुरी है। किसान जय नहीं रहा अब किसानों पर राजनीति करने वालों की ही जयजयकार है इनकी मोटी खाल पर कुछ भी असर नहीं पडता।
Saturday, December 5, 2009
पानी का शिकार.

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