Monday, December 21, 2009

भगवान अब तो मौत दे दो....

अरूणा शानबाग.... 61 वर्षीय महिला.. जो पहले सबों का ख्याल रखने में कोई कसर नहीं छोडती थी। आज ना ही देख सकती है, न सुन सकती है और ना ही महसूस कर सकती है। कौन अपना कौन पराया उसे कुछ भी पता नही। आज अरूणा जिंदा लाश में बदल गयी है जो दवाईयों की बैसाखियों के सहारे जीवन व्यतीत करने पर मजबूर है। हां उसे मजबूर ही कहेंगे क्योकि पिछले 36 साल से वो कोमा में है, हाथ-पैर टेढे हो चुके है, दिमाग बंद है, संवेदनाएँ कुछ भी नही। कौन खाना खिला रहा है, कौन उसे स्नान करा रहा है ,किसी बात का उसे इल्म नही। 36 साल पहले अरूणा हैवानियत की शिकार हुई। शिकार भी ऐसे की सीधे वो कोमा में चली गयी। अरुणा को हैवानियत का शिकार बनाया उसी अस्पताल के कर्मचारी ने । उसने अरूणा को मरने के लिए छोड दिया है। अरुणा को देख कर हर किसी किसीका दिल पसीज उठता है। अरूणा के वकील ने उसके मृत्यु की याचना की है, सुप्रीम कोर्ट में। उनके साथ हुए कुकर्म का उन्हे इंसाफ तो नही मिला, लेकिन जिंदा लाश ढोना अब मुमकिन नही। अरुणा की कहानी सुनकर और हालत देखकर कलेजा कांप उठा उठता है। कोर्ट से यही निवेदन है कि उन्हे इज्जत की मौत बख्श दे। खत्म कर दे उनकी शारीरिक पीडा को। जीवन के 36 साल से शारीरिक और मानसिक पीडा से बेहाल अरूणा की देखभाल मुंबई के के.ई.एम अस्पताल की नर्सें और कर्मचारी कर रहे है। अरूणा का बस यही परिवार है, जो कि खून के रिश्ते से बढकर। खून के रिश्तेदार भी तिमारदारी करने में हिचकिचाते है, लेकिन अस्पताल कर्मी नही। उनको तो सलाम है, लेकिन आज भगवान के अस्तित्व पर शंका हो रही है। भगवान को माननेवालों में से मैं जरूर हूं, लेकिन आज इस दर्द को देखकर लग रहा है कि भगवान है ही नही, होते तो इतने निष्ठुर नही होते। सरकार से निवेदन है कि कानून में कुछ प्रावधान करें ऐसे मार्मिक मामलों की तह में जाकर के पीडितों के दु:खों को दूर करे। उस फाईल को खोलकर उस वहशी दरींदे को मृत्यूदंड की सजा सुनाये जिसने एक नाजूक सी जिंदगी को बर्बाद कर दिया।

1 comment:

Sudeep Gandhi said...

आपने बढिया लिखा है। हकीकत है इस जिन्दगी को इस तरह जीने से भगवान कुछ तो दया करें। क्या सात साल की सज़ा उस दरिंन्दे के लिए काफी है।