Thursday, July 31, 2008

ज़िद ही ज़िद ....

मैं बचपन में आमबच्चों की तरह ही ज़िद करती थी। आपने भी की होगी कभी चॉकलेट के लिए, कभी खिलौने के लिए तो कभी नये कपडो के लिए । मै पढने के लिए ज़िद करती थी। पढाकू तो नही थी सामान्य बच्चों तरह ही थी । आजकल के बच्चे बडे ही ज़िद्दी होते जा रहे है। हर बात में ज़िद। जो चाहिए वो उनको चाहिये होता ही है। मां बाप की भी अपनी एक अलग ज़िद बच्चा जैसे ही आ, बा , तुतलाकर बोलना शुरू करता है,तो ये शुरू हो जाते है, ए फॉर एप्पल सिखाने। ये मत करो, ये मत गंदा करो, कपडे मत खराब करो। दुनीया भर की पाबंदी। बचपन खिलने से पहले ही मुरझा जाता है। करीयर बनाने की ज़िद से कई खासकर लडकियों की जिदंगी तबाह हो गयी है। ग्लैमर की चकाचौंध तक पहुँचने के लिए कई लडकियों ने अपनी इज्जत को दांव पर लगा दिया । ज़िद ने कईयों की ज़िन्दगियों को तबाह कर दिया है। ज़िद हमेशा बुनीयादी बातों के लिए होनी चाहिए। समाज में बदलाव लाने के लिए की जानी चाहिए। नयी पीढी को एक सही दिशा देनेवाली होनी चाहिए। समाज में सदियों से चली आ रही परंपराओ को तोडने के लिए तकरार और ज़िद होनी चाहीए तभी जाकर ज़िद और अपने ऊसूलों की बात करनेवाले लोग भी अच्छे लगने लगेंगे। परिवारों के साथ साथ देशभी एकसाथ जुडा रहेगा। समाज सुधारने की ज़िद करनेवालों को सभी अपनाना चाहेंगे वरना बेवजह की ज़िद करनेवाले किस कोने में खो जाएँगे पता नहीं चलेगा।लेकिन दिशा देने वाले अगर बच्चे भी हों तो लोग उन्हे प्रणाम करेंगे क्योकि समाज बदलाव चाहता है कृष्ण भी बच्चे ही थे लेकिन आज भी वो पूजे जाते हैं।कोई कृष्ण नही बन सकता लेकिन समाज में थोडा योगदान तो दे सकता है, सच्चा धरती की संतान तो बन ही सकता है।

1 comment:

Dilki chahat said...

हर शाम अपनी कमप्यूटर को खोलती हूँ कई बाते खोजती हूँ। अपका नया लिखा हुआ लेख पढा, रोचक लगा । बेहतर है , मैं मॉडल बनना चाहती हूँ लेकिन कोई सीढी पकड कर नहीं ज़िद है लेकिन एक सही कि मैं आमलोगों के साथ ना होकर के अलग ही रहूँ, वैसे आपकी लेख दिशा दे सकती है ... नेहा कपूर