Monday, April 5, 2010

रास ना आयी जिंदगी............

केवल ढाई अक्षरों में संसार समा सकता है और वो है “प्रेम”। इसमें जो डूबा वो संसार को पा सकता है लेकिन शर्त ये है कि वो नि:स्वार्थ हो। अक्सर ये होता भी नि:स्वार्थ ही। लेकिन इस पर नजर लग जाती है समाज और घर परिवार के लोगों की ही। दिल्ली में रविवार का दिन दो प्रेमी जोडे का आखरी दिन साबित हुआ। जोडे ने प्यार किया लेकिन उसके प्यार को कबूला नहीं समाज और घर ने। लिहाजा 22- से 25 उम्र के इन दो प्रेमी जोडो ने उपनी जीवनयात्रा को विराम दे दिया। एक जोडे ने ट्रेन के सामने आकर अपने प्यार को मरते मरते गले लगा लिया तो दूसरे जोडे ने पुल से नीचे कुदकर साथ साथ मरने की कसम को ही पूरा कर लिया। चाँद तो छोडिए हम मंगल पर पहुँच गए हैं साल बीतते 2010 तक हम पहुँच चुके है लेकिन समाज में आज भी प्यार को हेय नजर से देखा जाता है। जैसे प्यार ना हो कोई बदबूदार पदार्थ हो और महमारी फैलाने वाली बीमारी हो, पांव तले रौदने से में कोई हिचकता तक नहीं। उंची और नीत जात, गरीब और अमीर का भेद आज भी बरकरार है, चाहे हम विश्व की उत्पत्ती का खोज लगा ले या फिर मंगल पर जीवन को खोज आए। प्यार कभी भी किसी ने ये सोच कर नहीं किया कि उनके प्यार का अंजाम क्या होगा। जीवन में कभी वो मिल भी पाएँगे या नहीं ये कोई नहीं सोचता ना ही कभी ये सोचते कि सामने से प्यार का तोहफा देने वाली उँची जाति का , नीची जात का है, गरीब है या किसी रईसजादे की संतान है। प्रेमी आपस में एक झलक निहारने के साथ प्यार के बदले केवल प्यार का ही व्यवहार रखते हैं, इसके अलावा ना ही कोई इच्छा होती ना कोई कामना बस प्यार ही प्यार। उनकी कतई यह इच्छा नही होती कि उनके चलते किसी को कष्ट हो,कभी भी परिवार में भूचाल आए। अगर प्यार को पूजा की तरह देखे तो परिवार में ऐसा कभी होगा भी नहीं। लेकिन पूजा कौन भगवान की मूर्ति पर पडे मैल की तरह देखते हैं लोग। मैं कहती हूँ कि जात और पात की दुहाई देने वाले लोग ये बताए कि क्या जाति आपके चेहरे पर लिखा होता है। ना ही आपके चेहरे पर किसी जाति का चिन्ह है और ना ही आपके सही तरीके के रहन सहन से पता चलता है। रही बात धर्म का तो पता चल सकता है लेकिन ये बताएये किस धर्म में लिखा है कि लोगों से नफरत करों प्यार के बदले किसी का जीवन ही छीन लो। एक कागज का वो पूर्जा नफरत का कारण बन जाता है जिसपर आपके जाति का पर्माण पत्र होता है। सदियों पहले जब वर्ण व्यवस्था नहीं थी उस समय क्यों नहीं जाति प्रथा थी। उपनिषदो में साफ लिखा है कि अगर आपके कुल में कोई नीच कुल से भी लडकी आती और अगर उसके व्यवहार आपके कुल से श्रेठ है तो वो आपके लिए आदरणीय है। इसे स्वीकार करना शास्त्र धर्म है। प्यार वो अनुभति है जो हल्की सर्दी में नम घास पर ओस की बूँद से भी रुमानी। अगर महसूस करें तो पैरों से लेकर अंतरआत्मा को तृप्त कर देती है। इसे पाने के बाद, जीने का वजूद मिल जाता है, जोश से प्रेमी जोडे सराबोर हेता है। वे अपने जीवन की छोटी सी छोटी खुशी को बडे ही प्यार से संजोए रखते है। आपसे में गम बाटंकर अपने दुखो के बोझ को हल्का कर लेते है। लेकिन समाज में प्यार का विरोध ना हो यह बात कभी हो ही नही सकती। जब प्यार किया तो डरना क्या, प्यार किया कोई चोरी नही की, ये हमें फिल्मों में ही अच्छा लगता है क्योंकि हर प्रेमी जोडे को प्यार होने के बाद डरना ही पडता है, भले ही वो आपस में प्यार बांटने का नेक काम ही क्यों न करते है। दो प्रेमियों के आपस में एक होने से समाज का क्या बुरा होनेवाला है, या फिर परिवार का। बच्चों के प्यार को परिवार के सहारे के जरूरत है, उनके प्यार के बेसहारा होने से बच्चे तो घुट-घुट कर मरते ही जीना पर भी कई चीजे सालते रहता है। जिन्दा तो रहते हैं लेकिन बुझे-बुझे मजबूरी हो जाती है। इन्हें साथ रहने दीजिए क्योकि साथ रहने की कसमें खाने वाले कब साथ मे मर जाए कोई नहीं जानता। उत्तर भारत में प्रेमीयों के विरोध की धार बहुत ही तेज है, जो हिम्मत करके अपने प्यार को चुनते है उनके लिए सजा का फर्मान निकलता है। एक सप्ताह पहले शादी करनेवाले जोडे की आंखे निकालने का तुगलकी फर्मान निकाला गया। हम स्वतंत्र देश में रहते है ना किसी गुलाम देश में जहाँ अवाज उठाने पर ही कत्ल का फरमान दे दिया जाता है। गुजारिश है उस परिवार से जो बच्चों को अपनी झूठी शान के लिए बलि चढा देते हैं , कम से इस कदर ना तो अपनी खुशी बरबाद करे और ना ही बच्चों की। भावनाओं की आग में झुलसाइए नहीं। जीते जी उनकी चिता में अग्नि ना दिया करें। मत छीनों उन परिन्दों का जीवन जो तुम्हारी जीवन के लिए ही अपनी जीवन की आहुति देने को तैयार हैं। क्या कहूँ मजबूरी है.... कुछ आप भी सोंचे ,क्या जो समाज में हो रहा है ठीक है।

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