Monday, March 1, 2010

रिक्शावाले अंकल्स......

मुम्बई में बस या किसी और साधन से सफर करना उतना अच्छा नही लगता जितना की लाइफ लाइन लोकल ट्रेन का सफर इसलिए तो मै रात बारह बजे के बाद भी ऑफिस के ड्रॉपिंग से जाने के बजाए घर तक का सफर ट्रेन से तय करती हूं। हालांकि ट्रेन तो घर तक नही पहुँचाती, सोचती भी हूँ कि काश घर तक ट्रेन पहुँचाती, लिहाजा आठ से दस मीनट के सफर के लिए रिक्शा से जाना लाजमी हो जाता है। रिक्शा के बजाए टैक्सी से रोज रोजाना का सफर हो तो जेब पर भारी पड जाता है, वो ऐसा हो जाएगा की आमदनी अठ्ठनी और खर्चा रूपइय्या। शेअरिंग रिक्शा से जाने के अलावा दुसरा और कोई चारा ही नही होता। रात में घर जाने की जल्दी तो सभी को होती है और मुंबई जैसे शहर में आप ये कतई उम्मीद नही कर सकते की कोई पुरूष आप से कहे कि लेडीज फर्स्ट , कोई यह नही कहेगा कि देर रात हो गयी है और आप अकेली है तो रिक्शा में आप पहले जाए। यहाँ आपधापी इतनी मची है कि अगर कोई रास्ते में गिर जाए तो उसके उपर से कितने सैकडो लोग गुजर जाएगें पता नहीं चलेगा। दिन भर कमरतोड़ मेहनत करके थकने के बाद घर पहुँचने के लिए सभी को मशक्कत करनी पडती है। रात के वक्त रिक्शेवालों की एक अपनी ही अकड होती है । रात में नाईट चार्ज मिलता है तो शेअरिंग से क्यों ले जाए और तो और रात में अगर शेअरिंग रिक्शा ना मिले तो महिलाएं तो कमसे कम मीटर से जरूर जाएंगी । किसी रिक्शेवाले ने गंतव्य स्थान के लिए आवाज लगा दी तो लॉटरी ही लग जाती है। एक दुसरे को कुचलकर लोग अपनी अपनी सीट पाने की होड में लग जाते है। सभी को घर पहुँचने की जल्दी होती है, ऐसे में मै यह उम्मीद भी नही करती की कोई मुझसे यह कहे की मेरे बजाए आप पहले जाए। शहरों में कामकाजी महिलाओं को अक्सर यह अनुभूती होती है। यहां तो महिलाओं की सीट पर बैठे पुरूष उन्हे सीट देने में भी आनाकानी करते है। लेकिन रात के इस दस मीनट के सफर में मुझे एक आशा की किरण भी नजर आती है। रोजमर्रा के इस सफर में मेरे दो रिक्शेवालों से अनजाना से अंकल का रिश्ता बन गया है। एक अंकल रिक्शा चलाते है। दूसरे अंकल से पहचान एक ही समय पर आने से और रिक्शा के इंतजार करते करते हुई है। दोनो भी मेरे दिखने पर मुझे आवाज लगाकर अपनी रिक्शा में बिठा लेते है। जिनकी रिक्शा है वे अंकल पहले मुझे बिठाते है फिर अन्य सवारी को, मै अगर ना रहूं तो किसी अन्य महिला को प्राथमिकता दी जाती है। ना तो उन दोनो को मेरे बारे में कुछ पता है और ना मुझे उनके बारे में, यहां तक की वे मेरा नाम भी नही जानते, यह सिलसिला कई महिनों से शुरू है। एक महिला के प्रति सम्मान देखकर बेहद आश्चर्य होता है। स्वार्थीयों के हुजूम में इन्सानियत अभी भी बरकरार है। रात का सफर अब डरावना नही बल्कि सुहावना लगता है। रात आते ही काले और डरावने बादल नजर आने वाले उस नीली विशाल छतरी की जुम्बिश अभी भी मुझे अपनी ओर खींचती है और कहती है कि भोर भी सुहावना होगा रखो भरोसा... विदा वो इन्सानियत के बन्दे फिर होगी मुलाकात.....।

1 comment:

Abuzar usmani said...

Insaniyat aur insaniyat ko mehsoos ker lena dano hi achi cheezen hain,is samaj me bahut se log dosron ke sath insaniyat ka bartao kerte hain per unhe us insaniyat ka jawab nahi milta,ajab hai khuda ne jis insaniyat ke sath is duniya men bheja aur jis se unka wujood hai use hi kisi gande kapde ki tarah utar ke phenk diya hai.