Wednesday, October 7, 2009

चुनावी दिहाडी

बरसात तो अच्छी हुई किसान भी फिर से धरती का सीना चीरकर हल जोत कर फसल लहलाने लगे। अब खेतों में लगी लहलहाती फसल के कटाई की बारी आयी । किसान तो हर साल धरती पर अपना पसीना गिराते हैं और फसल काटते हैं, बेचारे गरीव किसान दिन रात धूप में पसीना बहा कर धरती से अनाज उगाते हैं। लेकिन हमारे देश के कुछ किसान हैं जो कि एयरकंडीशन में ही रहते हैं वो हैं हमारे राजनेता उनकी पाँच साल बाद आने वाली चुनावी फसल लहलहा रही है। जिसके चलते हमारे खेतों में काम करने वाले मूल किसानों के पास फसल की कटाई के लिए मजदूरों की किल्लत है। खाने की जब बारी आयी तो कहावत बन पडी कि अब चने है , तो दांत नही। पैसे लगाकर फसल तो अच्छी आयी है लेकिन अब कटाई के लिए मजदूर ही नही है। अचानक से खेतों में मजदूरों की किल्लत आन पडी है ,क्योंकि चुनावी फसल लहलहा रही है। दस से बारह घंटे खेतों में पसीना बहाकर कमरतोड मेहनत करके जीतने पैसे नही बनते उतने पैसे चुनावी रैलियों में शामिल होने के लिए मिल रहे है। इन लोगों को करना होता है केवल हाथों में झडें लेकर एयरकंजीशन में रहनेवाले किसान रुपी नेताजी की जयजयकार करनी पडती है चाहे वो नेता उनके लिए कुछ करे या ना करे। खेतों में काम करने के बजाए रैलियों में शामिल होना महिलाएं ज्यादा पसंद कर रही है। राजनीतिक पार्टीयां बच्चों का भी खूब इस्तेमाल कर रही है। छोटा कद कम पैसे, और खाने के लिए कुछ नाश्ता इसी में बच्चों को बहला लिया जाता है। रैलियों में शामिल होने के कुछ फायदे हैं तो कुछ नुकसान भी होता है। नासिक में कुछ महिलाओं को सौ रुपये देने का वादा किया गया लेकिन दिन भर के बाद उन्हे पचास रूपये थमाकर उनके साथ मार पिटाई भी की गयी। राजनीतिक पार्टीयां लोगों से ही वोट मांगती है और वोट मांगने के लिए उनका ही इस्तेमाल कर रही है। चुनावी फसल की कटाई के लिए मजदूरों की कमी नही है, लेकिन पेट भरने के लिए अनाज अगर खेतों में ही रहकर खराब हो जाएगा तो फिर एक बार मंहगाई की मार से कोई नही बच पाएगा। एयरकंडीशन में रहने वाले तथाकथित किसानों को कुछ असन नहीं पडेगा।एक बार फिर मारा जाएगा तो देश का गरीब किसान.....

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