बरसात तो अच्छी हुई किसान भी फिर से धरती का सीना चीरकर हल जोत कर फसल लहलाने लगे। अब खेतों में लगी लहलहाती फसल के कटाई की बारी आयी । किसान तो हर साल धरती पर अपना पसीना गिराते हैं और फसल काटते हैं, बेचारे गरीव किसान दिन रात धूप में पसीना बहा कर धरती से अनाज उगाते हैं। लेकिन हमारे देश के कुछ किसान हैं जो कि एयरकंडीशन में ही रहते हैं वो हैं हमारे राजनेता उनकी पाँच साल बाद आने वाली चुनावी फसल लहलहा रही है। जिसके चलते हमारे खेतों में काम करने वाले मूल किसानों के पास फसल की कटाई के लिए मजदूरों की किल्लत है। खाने की जब बारी आयी तो कहावत बन पडी कि अब चने है , तो दांत नही। पैसे लगाकर फसल तो अच्छी आयी है लेकिन अब कटाई के लिए मजदूर ही नही है। अचानक से खेतों में मजदूरों की किल्लत आन पडी है ,क्योंकि चुनावी फसल लहलहा रही है। दस से बारह घंटे खेतों में पसीना बहाकर कमरतोड मेहनत करके जीतने पैसे नही बनते उतने पैसे चुनावी रैलियों में शामिल होने के लिए मिल रहे है। इन लोगों को करना होता है केवल हाथों में झडें लेकर एयरकंजीशन में रहनेवाले किसान रुपी नेताजी की जयजयकार करनी पडती है चाहे वो नेता उनके लिए कुछ करे या ना करे। खेतों में काम करने के बजाए रैलियों में शामिल होना महिलाएं ज्यादा पसंद कर रही है। राजनीतिक पार्टीयां बच्चों का भी खूब इस्तेमाल कर रही है। छोटा कद कम पैसे, और खाने के लिए कुछ नाश्ता इसी में बच्चों को बहला लिया जाता है। रैलियों में शामिल होने के कुछ फायदे हैं तो कुछ नुकसान भी होता है। नासिक में कुछ महिलाओं को सौ रुपये देने का वादा किया गया लेकिन दिन भर के बाद उन्हे पचास रूपये थमाकर उनके साथ मार पिटाई भी की गयी। राजनीतिक पार्टीयां लोगों से ही वोट मांगती है और वोट मांगने के लिए उनका ही इस्तेमाल कर रही है। चुनावी फसल की कटाई के लिए मजदूरों की कमी नही है, लेकिन पेट भरने के लिए अनाज अगर खेतों में ही रहकर खराब हो जाएगा तो फिर एक बार मंहगाई की मार से कोई नही बच पाएगा। एयरकंडीशन में रहने वाले तथाकथित किसानों को कुछ असन नहीं पडेगा।एक बार फिर मारा जाएगा तो देश का गरीब किसान.....
Wednesday, October 7, 2009
चुनावी दिहाडी
बरसात तो अच्छी हुई किसान भी फिर से धरती का सीना चीरकर हल जोत कर फसल लहलाने लगे। अब खेतों में लगी लहलहाती फसल के कटाई की बारी आयी । किसान तो हर साल धरती पर अपना पसीना गिराते हैं और फसल काटते हैं, बेचारे गरीव किसान दिन रात धूप में पसीना बहा कर धरती से अनाज उगाते हैं। लेकिन हमारे देश के कुछ किसान हैं जो कि एयरकंडीशन में ही रहते हैं वो हैं हमारे राजनेता उनकी पाँच साल बाद आने वाली चुनावी फसल लहलहा रही है। जिसके चलते हमारे खेतों में काम करने वाले मूल किसानों के पास फसल की कटाई के लिए मजदूरों की किल्लत है। खाने की जब बारी आयी तो कहावत बन पडी कि अब चने है , तो दांत नही। पैसे लगाकर फसल तो अच्छी आयी है लेकिन अब कटाई के लिए मजदूर ही नही है। अचानक से खेतों में मजदूरों की किल्लत आन पडी है ,क्योंकि चुनावी फसल लहलहा रही है। दस से बारह घंटे खेतों में पसीना बहाकर कमरतोड मेहनत करके जीतने पैसे नही बनते उतने पैसे चुनावी रैलियों में शामिल होने के लिए मिल रहे है। इन लोगों को करना होता है केवल हाथों में झडें लेकर एयरकंजीशन में रहनेवाले किसान रुपी नेताजी की जयजयकार करनी पडती है चाहे वो नेता उनके लिए कुछ करे या ना करे। खेतों में काम करने के बजाए रैलियों में शामिल होना महिलाएं ज्यादा पसंद कर रही है। राजनीतिक पार्टीयां बच्चों का भी खूब इस्तेमाल कर रही है। छोटा कद कम पैसे, और खाने के लिए कुछ नाश्ता इसी में बच्चों को बहला लिया जाता है। रैलियों में शामिल होने के कुछ फायदे हैं तो कुछ नुकसान भी होता है। नासिक में कुछ महिलाओं को सौ रुपये देने का वादा किया गया लेकिन दिन भर के बाद उन्हे पचास रूपये थमाकर उनके साथ मार पिटाई भी की गयी। राजनीतिक पार्टीयां लोगों से ही वोट मांगती है और वोट मांगने के लिए उनका ही इस्तेमाल कर रही है। चुनावी फसल की कटाई के लिए मजदूरों की कमी नही है, लेकिन पेट भरने के लिए अनाज अगर खेतों में ही रहकर खराब हो जाएगा तो फिर एक बार मंहगाई की मार से कोई नही बच पाएगा। एयरकंडीशन में रहने वाले तथाकथित किसानों को कुछ असन नहीं पडेगा।एक बार फिर मारा जाएगा तो देश का गरीब किसान.....
Monday, October 5, 2009
पालनाघरों के शिकार
पुणे में मासूम सी नन्ही बच्ची को कपडे को प्रेस करने वाले इस्त्री से जलाकर दाग दिया गया,कसूर महज इतना था कि नन्ही सी जान धीरे धीरे खाना खा रही थी, और भूख नहीं होने से खाना खाने से इन्कार कर रही थी। मंहगाई के इस दौर में एक आदमी के आमदनी पर घर खर्च चलना मुश्किल ही नही नामुमकिन है। इसलिए पती पत्नी को अपने नन्हे बच्चों को पालना घर में रखना पडता है। पालना घर में बच्चों को रखना खतरे से खाली नही, लेकिन सभी पालनाघर ऐसे नही है। उनका लक्ष्य सिर्फ पैसे कमाना नही है। प्यार के मोहताज ये नही समझ पाते की पालनाघर वाली आंटी उसका ख्याल प्यार से नही बल्कि पैसे के लिए कर रही है। मासूम बच्ची को इस्त्री गर्म करके जलाना हैवानियत से कम नही है। महज खानापूर्ती के लिए बच्चों की देखभाल करके पैसा कमाने का चलन ही निकल पडा है। हर गली मुहल्ले में कुकुरमुत्तों जैसे बने पालनाघरों की विश्वसनीयता जांच लेना बहुत जरूरी है वर्ना अभिभावकों पता भी नही चलेगा की उनके कलेजे के टुकडों के साथ किस तरह का बर्ताव हो रहा है, नही तो बच्चों के जान पर बन आने के बाद ही माता पिता को खबर लग पाएगी। मां- पापा भी यह जान ले की अपने घरवालों को सिवाए बच्चों को प्यार देने का नाटक करने वाले गैरों को लगाव कम ही होगा। साथ ही अवैध तरीकों से महज पैसो के लिए पालनाघर चलानेवालों पर सख्त से सख्त कारवाई होनी चाहिए।अगर ऐसा नही हुआ तो इनका शिकार कोई मासूम जरूर होगा। हमारे समाज में पैसा तो जरुरी है लेकिन किसी के ममता को गला घोंट कर पैसा कमाने वाले क्या चैन से रह पायेंगे... आखिर वो भी किसी के माता पिता ही होगें। कुछ लोग कहते हैं कि पैसा खुदा नहीं है लेकिन पैसा खुदा से भी कम नहीं है....लेकिन बच्चे तो भगवान के रुप होते हैं.. तब उनके साथ क्या ऐसा व्यवहार करना भगवान के साथ अन्याय करना नहीं होगा।
Saturday, October 3, 2009
चुनावी घोषणापत्र- वादो का पुलिंदा
लगभग सभी राजनितीक पार्टीयों ने साझा चुनावी घोषणापत्र जारी किया है। घोषणापत्र क्या चुनावी वादो का पुलिंदा ही समझ लो। शहरी लोगों को तो पता चल गया होगा की हर पार्टी ने उनके लिए कौनसे वादे किये है, लेकिन खेत खलिहानो में काम करनेवाले किसानों को पता ही नही की उनके लिए आनेवाली सरकार क्या करने जा रही है। क्योंकी घोषणापत्र में किए गये वादे उनतक पहूंचने का साधन तो उनके पास होगा लेकीन वो साधन चल ही नही पाता क्योंकी बिजली तो हमेशा ही गूल रहती है। हर पॉलिटीकल पार्टी के लगभग एक ही जैसे वादे है। गरिबी रेखा के नीचले लोगो के लिए 2रूपये किलो अनाज, लोडशेडिंग मुक्त महाराष्ट्र, ग्राम सडक विकास , मुंबई को आनेवाले पाच सालों में अंतरराष्ट्रीय दर्जे का शहर बनाने की योजना, भूमिपुत्रों को नौकरीया और ऐसे कई अनगिनत वादे। सभी पार्टीयों ने पाचं साल पहले किए वादों को फिर एक बार दोहराया गया। बडी ही हास्यास्पद बात लगती है की किसानो ने कभी भी मुक्त बिजली या कर्जे कि मांग नही की, लेकीन महज वोटो के लिए किसानों को लुभाया जा रहा है। 2 रूपये किलो से अनाज मिलना मुश्कील ही नही बल्की नामुमकीन है। दिन ब दिन महंगाई तो मुँह बाए खडी है और कालाबाजारीयों ने अपनी जडे जमा ली है, मंहगाई में आटा गिला । आनेवाली सरकार से आम लोगों की बस यही अपेक्षा होगी की मंहगाई की मार उन्हे झेलनी न पडे। किसानों को राहत और युवाओं को कमाई का साधन मिले । बडी बडी घोषणा करके हर पार्टीयां अपनी अपनी रोटी तो सेक रही है, वहीं चुनावों में करोडो रूपयों का वारे न्यारे हो रहे है। लेकीन लोगों के विकास के लिए किसी भी पार्टीयों की जेब ढिली नही हो रही है। लोगों को आनेवाली सरकार से वादों का अंबार नही, बल्की घोषणापत्र में दिए गये हर एक बात पर अमल होना चाहिए, फिर चाहे सरकार किसी की भी हो। वरना जो लोग सरकार बनाना जानते है वो सरकार गिराना भी जानते है।
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